पीछे रोज हटे
आगे बढ़ने की धुन में हम, पीछे रोज हटे।
कल को विस्मृत कर बैठे कल, कैसे उज्ज्वल हो।
केवल तन धो लेने से मन, कैसे निर्मल हो।
चाह समंदर बनने की थी, लोटे में सिमटे।।
उनके जुगनू देखे अपना सूरज नहीं दिखा।
वही वृक्ष काटा जिस पर था अस्तित्व टिका।।
बेघर होकर घूम रहे अब बिल्कुल लुटे पिटे।
माता और पिता से अपने रिश्ते तोड़ लिए।
आयाओं के नेह भरोसे बच्चे छोड़ दिये।।
संस्कार के नाम पे केवल हैलो हाय रटे।.
प्रदीप कुमार “दीप”
सुजातपुर, सम्भल (उ०प्र०)