पीछे मुड़कर
पीछे मुड़कर
देखा दो क़दम रुकी
ज़िंदगी बहुत सरल मिली
सहजता से मुस्कुरा रही थी
हर हाल में ख़ुशी मना रही थी
न थी कोई रुसवाई न रंजो ग़म
न अस्वीकारता से था कोई भ्रम
चलते चलते बढ़ते जाने से था वास्ता
कितना और कैसा भी हो लंबा रास्ता
न थे कोई क्यूँ ,कैसे, कब जैसे प्रश्न
स्वयमेव ही उत्तर मिल जाता हर दिन
समय बीतता गया,बौद्धिकता बढ़ती गई
क्यों, कैसे, कब जानने की लालसा होती गई
हर दिन सँवारने के चक्रव्यूह में उलझते गए
ऐसे बेतुके सवालों कई सवाल खड़े कर दिए
न हल होंगे न जी सकेगें इन सवालों के साथ
सरलता से जटिलता की ओर बढ़ा लिया हाथ
क्यूँ न जी लें बिना सवाल बिना प्रत्युत्तर के
हमें तो बैठना है दीर्घा में केवल दर्शक बन के
पटाक्षेप होगा, समापन होगा इस नाटक का
केवल मज़ा ही लेना है अप्रत्याशित इंतज़ार का
डॉ दवीना अमर ठकराल’ देविका’