पिया मोर बालक बनाम मिथिला समाज।
पिया मोर बालक बनाम मिथिला समाज।
-आचार्य रामानंद मंडल
पिया मोर बालक,हम तरूणि गे!
कौन तप चुकलौं भेलौ जननि गे !
पिया मोर बालक….
पहिरि लेल सखी दछिन चीर
पिया के देखैत मोरा दगध शरीर
पिया लेल गोद कै चलली बाजार
हटिया के लोग पूछे के लागै तोहार
पिया मोर बालक……
नहीं मोरा देवर की नहीं छोट भाई
पूरब लिखल छल बलमु हमार
वाट के बटोहिया के तुहु मोरा भाई
हमरो समाद नैहर लेने जाय
पिया मोर बालक…….
कही हुन बाबा के कीनै धेनु गाय
दुधवा पिआई के पोसत जमाई
भनही विद्यापति सुनहु बृजनारि
धयरज धैरहुं मिलत मुरारी
पिया मोर बालक….
ई लोकप्रिय रचना मैथिली महाकवि विद्यापति के हय। भले ई भगवान कृष्ण के बाल रूप आ हुनकर जवान गोपिका के प्रेम के व्यक्त गेल हय। परंच कहल जाय हय कि अइ रचना मे महाकवि समाज में व्याप्त तत्कालीन स्त्री के दुर्दशा के व्यक्त कैलन हय।अइ रचना के भक्ति रचना न मानल जाइत हय बल्कि सामाजिक रचना कहल जाइत हय।
महाकवि विद्यापति के काल १३५०ई से १४५० ई हय। महाकवि से पहिले से लेके वर्तमान तक के साहित्यिक इतिहास मे कोनो एहन घटना के उल्लेख न मिलय हय कि कोनो बालक के बिआह कोनो युवती से भेल होय।जौकि बुढ वर से बालिका बिआह के बहुत दृष्टांत मिलय हय। साहित्यिक इतिहास अइसे भरल हय। शिव आ पार्वती वोकरे स्वरूप कहल जा सकैय हय।बाल बिधवा के दुर्दशा से त मैथिली साहित्य नोर झोर हय। मिथिला के संस्कृति में बालिका बधु बिआह आ बहु पत्नी बिआह प्रथा रहल हय।तब केना पिया मोर बालक,हम तरूणि गे रचल गेल होयत।
वास्तव मे महाकवि विद्यापति के उक्त रचना विशुद्ध रूप से भक्ति रचना हय। महाकवि के सामाजिक रचना न हय। जौं रहैत त –
पिया मोर बुढ़वा हम बालिका गे होइत,न कि
पिया मोर बालक हम तरूणि गे।
-आचार्य रामानंद मंडल, सामाजिक चिंतक सह साहित्यकार सीतामढी।