पितृ ऋण
याद आते है, बचपन के वो दिन, जब उनकी उँगली पकड़ हम सैर पर जाते ,
रास्ते भर बतियाते जाते, हर कौतूहल भरे प्रश्नों का उनसे उत्तर पाते ,
धीरे-धीरे बड़े होने पर, उनकी साइकिल चलाने की कोशिश करते,
गिरते ,चोटिल होते, फिर भी ना छोड़ते ,
गिर- गिर कर संभलते, कोशिश करते रहते,
फिर कैंची चालन में सफल हो,
विजयी मुस्कान बिखेरते,
मेरी शरारत पर वे कभी नही डाँटते, बल्कि
मुझे प्यार से समझाते ,
उनकी छोटी-छोटी सीखों मे छुपी बड़ी बड़ी बातें, अब समझ में आतीं है ,
जब भी मुझे बचपन मे कही,
उनकी बातें याद आतीं हैं ,
मेरे लिए मेरे पिता,
मेरे आत्मविश्वास का संबल ,
मेरे रक्षक , मेरे शिक्षक ,
मेरे पथ प्रदर्शक बने रहे ,
परिस्थितियों एवं संकटों से जूझने वाले
पुरुषार्थ की मूर्ति बने रहे ,
उनका शांत एवं गंभीर स्वभाव,
समस्याओं को हल करने की उनकी
प्रखर प्रज्ञा शक्ति,
परिवार के प्रति उनका
अगाध प्रेम एवं समर्पित भाव ,
एवं उनके तेजोमय
व्यक्तित्व की प्रेरणा शक्ति,
उनके पोषित संस्कारों, मानवीय मूल्यों का
मेरे चारित्रिक विकास में योगदान,
अटूट पारिवारिक रिश्तों के निर्वाह में उनका आत्मबलिदान ,
कभी भुला ना पाऊँगा ,
मैं अकिंचन पुत्र, अपने पितृ ऋण से,
कभी मुक्त ना हो पाऊँगा ।
रचनाकार : श्यामसुंदर सुब्रमण्यन्
बैंगलुरु कर्नाटका