पिता
आँखों में कुछ स्वप्न सजाए, चल पड़ा वो नई राहों में,
ख्वाहिश थी एक कली खिले और महके उसके आँगन में।
हवाओं ने चुगली कर डाली, कह डाला ईश्वर के कानों में,
आँखों में अश्रु भर आए, जब पुत्री आई हाथों में।
बंधन उम्र भर टूट ना पाए, ऐसी कशिश थी नन्ही आँखों में,
उस मुस्कान पे जान लुटाना, आ गयी उसकी आदत में।
सदैव रहूँगा साथ तेरे, कोई काँटा चुभे ना पाँवों में,
लब पे ऐसे शब्द सजे और प्रण था सच्चा भावों में।
शिक्षा और नैतिकता को भरा अपनी बच्ची के संस्कारों में,
आधार बनाया स्वंय को ऐसा की उड़े वो स्वछंद संसारों में।
समय ने ऐसा खेल रचा, जो ना उसके ख्यालों में,
एक विध्वंशी गुपचुप आ बैठा, उसके हीं गलियारों में।
भ्रम का ऐसा जाल बिछा, वो फँस गया उसकी बातों में,
जान से प्यारी बच्ची को फ़िर, सौंपा उसके हाथों में।
अत्याचार हुए कुछ ऐसे जो दिखे, तन मन के घावों में,
मौन पड़ गयी उसकी चेतना और स्तब्धता आयी विचारों में।
पीड़ा पहुंची ऐसी मन को, रोया वो अंधकारों में,
माना स्वंय को दोषी ऐसा, खोया रोग के गलियारों में।
कहते हैं माँ कोमल होती और कठोरता होती पिता के भावों में,
उस स्नेह को अब मैं तोलूं कैसे, जो पड़ा बेबसी की बाहों में।
– मनीषा मंजरी
– दरभंगा (बिहार)