“पिता”
निशब्द! सी मैं हो जाती हूँ,
शब्दों को आधार नहीं मिलता,
जब भी पिता पर लिखना चाहूँ,
शब्दों का भंडार नहीं मिलता।
बस अश्रुपूरित सी आंखों में,
सब यादें धुंधली सी हो जाती हैं,
प्रेम की अविरल सी धारा में,
शब्दों की छवि धुल जाती है।
हाथ तुलिका का साथ नहीं देते हैं,
बस याद करके मैं पापा को,
उनको फ़ोन मिला पाती हूँ,
फोन पर क्या बात होनी थी,
बस पूछते है कैसी हो तुम बेटी,
कहकर अच्छी हूँ पापा,
बस आँख नम हो जाती है।
अगले ही क्षण वो आनन-फानन,
बस माँ को फ़ोन थमाते है,
लो बात कर लो अपनी मम्मी से,
बस यही वो कह पाते है।
मुझे पता है उनकी भी आँखे नम है,
इधर मेरी भी नम हो जाती है,
अपने से दूर ससुराल बसी बिटिया को,
वो बस दिल से आशीर्वाद ही दे पाते है।
मुझे याद है वो दिन भी जब,
मेरी नन्हीं-2 सी उंगलियों को,
थाम के जब वो चलते थे,
आड़े-तिरछे रखे एक-एक पग को,
देख के बस वो हँसते थे।
देकर सहारा अपने हाथों का
आत्मविश्वास सा मुझ में भरते थे।
कभी साईकिल के पीछे भागना,
कभी स्कूल- कॉलेज की एडमिशन,
मुझे याद है हर त्याग तुम्हारा पापा,
जो तुम हम सब के लिए करते थे।
दिन-रात मेहनत करके तुम,
परिवार का पालन पोषण करते थे,
सबके लिए सब कुछ किया पर,
खुद के बारे में ना सोचा करते थे।
परिवार की खुशियों की खातिर,
सब कुछ बलिदान किया पापा ने,
माँ ने जहाँ मकान को घर बनाया,
वहाँ पिता ने इस खूबसूरत से घर को,
तिनका-तिनका जोड़ सजाया,
तभी तो कहती हूँ …..
निशब्द! सी मैं हो जाती हूँ,
शब्दों को आधार नहीं मिलता,
जब भी पिता पर लिखना चाहूँ,
शब्दों का भंडार नहीं मिलता।
✍स्वरचित
माधुरी शर्मा मधुर
अंबाला हरियाणा।