पिता
पिता दिवस पर कविता
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दर्द को भीतर छुपाकर,
बच्चों संग मुसकाते।
कभी डाँट फटकार लगाते,
कभी कभी तुतलाते।
हँस हँसकर मुँहभोज कराते,
भूखे रहते हैं फिर भी।
स्वच्छ जल पीकर सो जाते ,
गोद में लेकर सिर भी।
आँधी तूफाँ आये लाखों,
चाहे सिर पर कितने।
विशाल वक्ष में समा लेते हैं,
दर्द हो चाहे जितने।
बच्चों की खुशियाँ और,
माँ की बिंदी टीका।
पड़ने देते किसी मौसम में,
कभी न इनको फीका।
पर कुछ पिता ऐसे जो ,
मानव विष पी जाते।
बुरी आदतों में आकर ,
अपनों का गला दबाते।
माँ की अन्तरपीड़ा और,
बच्चों की अंतः चीत्कार।
जो न सुनता है पिता,
समाज में जीना है धिक्कार।
माँ तो है सृष्टिकर्ता पर,
पिता है जीवन का आधार।
अपनी महिमा बनाये रखना,
हे ! जग के पालनहार।।
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अशोक शर्मा, कुशीनगर,उ.प्र.
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