पिता
मन बहुत भीगता है ,
पर रो नहीं सकता,
बाप से मजबूर ,
कोई हो नहीं सकता l
ज़रूरतें घर की,
सहूलियतें सबकी,
उसको याद रहती है,
अपनी खबर उसको
कम ही रहती है l
करता है सब कुछ ,
जो बस में होता है,
डाँटता है बच्चों को,
फिर खुद में रोता है l
रखता है रुख, सख्त बाहर से,
मोहब्बत को अंदर रखता है,
खुरखुरे से लगते पापा के अंदर ,
जज्बात का झरना बहता है l
मुनमुने के गुन गुने होने पर,
लगता बेफिक्र दिखने में,
अंदर बैचैन होता है,
छोड़ दोस्तों की महफ़िल,
दवा स्टोर में वो ,होता है l
मेरी हर चीज़ नई जैसी लगती है
कहकर,
पुराना कोट उसने उम्र भर , नही बदला ,
स्कूटर , घड़ी , चश्में के फ्रेम भी नहीं ,बदला ,
बेटे के कपड़ों शौकों उसके रंगों में,
कोई कमी रह न जाये कहीं,
सफेद शर्ट सफेद पेंट ही पहने,
कभी कपड़ों के रंग नहीं बदले ।
उनके सख्त लहजों को आज मैं,
पहचान पाता हूँ,
जो बातें गलत लगती थीं,
उनका अनुमान लगा पाता हूँ l
उनकी ज़िंदगी की अलमारी के पास,
कभी खड़ा हो जाता हूँ l
खोलता हूँ , देखता हूँ , नापता हूँ अनुभवों को,
पाँच खानों की इस अलमारी में ,
ज़मीन से बस दो खानों,
पहुंच पाता हूँ l
डॉ राजीव , “सागरी”
सागर म.प्र.