पिता
पिता जैसी शख्सियत और किरदार को किसी परिचय की ज़रूरत नहीं, पिता वो नींव का पत्थर है जो पूरी ईमारत का बोझ अपने कांधे पर ताउम्र लेकर चलता है और जब अचानक पिता का साया सर से उठ जाए तो पूरा परिवार ताश के पत्तों के जैसा बिखर जाता है | एक पिता की हैसियत और उसके किरदार को चंद एक शब्दों में बयां करने की एक छोटी सी कोशिश –
बंदोबस्त की फ़िक्र मे मरना, वक्त – ए – ज़रूरत हो जाती है |
हर घड़ी परिवार की चिंता करना, बाप की आदत हो जाती है ||
कोई तालीम भला कहाँ किरदार बनना सिखाती है |
शख्सियत – ए – बाप खुदबखुद वक़्त – ए – मुरव्वत हो जाती है ||
छांव अता करके जो मरता है दिनों – रात आठों पहर |
चूम लो उन लकीरों को जो दौर – ए – गुरबत हो जाती है ||
हम भला कैसे मुकर जाये उन सलीको से |
जो मुँह से निकले और ज़माना – ए – वजा़हत हो जाती है ||
तेरा भी अश्कों से राबता होगा उस रोज़ |
अलविदा कह कर जब घर से बेटी रुख़सत हो जाती है ||