# पिता#
पिता,
एक दरख्त की छांव के मानिंद,
परिश्रम और अनुशासन का पर्याय,
नारियल की सतह जैसा कठोर,पर
अंदर से कोमल और ममत्व भरा दिल,
क्या बच्चे देख पाते हैं?
आकाश जैसी पिता की अदृश्य सरपरस्ती,
छलकने से पूर्व ही कोरों में सायास रोके गए अश्रु,
अंतर्मन में उबलता स्नेह का अपरिमित लावा,
खुद तपकर बच्चों को खरा सोना बनाना,
क्या बच्चे कभी महसूस करते हैं?
“अरे लड़के भी कहीं रोते हैं”, कहकर
उसे असमय ही बालक से पुरूष बना
जो अंदर अपनी ममता को जज्ब कर
सर पर केवल हाथ फेर, मूक आशीष देते
पिता, तो बस ऐसे ही होते हैं,
दिखलाते भले ही नहीं वो, पर,
बच्चों की सफलता पर गर्वित होता सीना
और बेटी की विदाई पर मन में घुमड़ता
स्नेह और पीड़ा का सागर तो,उन्हें भी बेचैन करता है।
क्या बच्चे कभी समझ पाते हैं?
मां पर बहुत कुछ लिखा सबने,
उसे ईश्वर तुल्य माना, पर पिता तो….
उसी ईश्वर की कल्पना को साकार करने
कच्ची मिट्टी को आकार देने की कोशिश में
ताउम्र स्वयं को होम करता रहता है
क्या कसकते मन की व्यथा कभी
बच्चे कभी समझेंगे? शायद हां भी.. शायद ना भी
अगर मां को कोई पर्याय नहीं तो
पिता का भी कोई विकल्प नहीं….