पिता
पिता
पिता अभिमान होता है,
पिता अरमान होता है।
सृजन के जान पे आयी
पिता कुर्बान होता है।।
जवानी धूप में खोता,
बुढापा तन्हा ढोता है।
बच्चों की याद आये तो
सदा चुपके से रोता है।।
सकल दिन धूप में ढलता
निशा भी आँख में जगती।
बच्चों की देख बेरुखी-
स्वयं अंदर ही जलता है।।
बहुत ही प्यार करता है
हरेक वो ख़्वाब भरता है।
नए जूते देकर खुद
फ़टे जूतों में चलता है।।
सृजन जननी करती है,
पिता खुद नाम देता है।
सफ़र जीवन में हरदम तो
पिता ही काम देता है।।
पिता ही वो फरिश्ता है,
बड़ा नायाब रिश्ता है।
बड़ा करने की चाहत बस
पिता ही ख़्वाब भरता है।।
बच्चों से जख़्म जो मिलता
सदा ख़ामोश सब सहता।
माँ आँसू बहा लेती-
पिता अंदर सिसकता है।।
विदा बेटी को जब करता,
बड़ा वो कश्मकश रहता।
हिमालय की तरह चुपचाप,
स्वयं अंदर पिघलता है।।
सदा तनकर खड़ा रहता,
कभी जो सर नहीं झुकता।
पिता बेटी का बनकर तो,
चरण दामाद भी छूता है।।
©पंकज प्रियम
पितृदिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।