पिता
पिता ! आप विस्तृत नभ जैसे,
मैं निःशब्द भला क्या बोलूं.
देख मेरे जीवन में आतप,
बने सघन मेघों की छाया.
ढाढस के फूलों से जब तब,
मेरे मन का बाग़ सजाया.
यही चाहते रहे उम्र भर
मैं सुख के सपनो में डोलूं.
कभी सख्त चट्टान सरीखे,
कभी प्रेम की प्यारी मूरत।
कल्पवृक्ष मेरे जीवन के !
पूरी की हर एक जरूरत।
देते रहे अपरिमित मुझको,
सरल नहीं मैं उऋण हो लूँ।
स्मृतियों की पावन भू पर,
पिता, आपका अभिनन्दन है।
शत-शत नमन, वंदना शत-शत,
श्रद्धा से नत यह जीवन है।
यादों की मिश्री ले बैठा,
मैं मन में जीवन भर घोलूँ।
— त्रिलोक सिंह ठकुरेला