पिता
उंगली पकड़ कर चलना सिखाया,
सही क्या ,गलत क्या , सब कुछ बताया।
थके जब कदम लड़खड़ा कर जमीं पर,
पिता ही तो थे, जिसने हमको उठाया।
आसां नहीं थे डगर इस सफर के,
थी मुश्किल बड़ी इस गली इस शहर में।
मगर इन सभी से हां लड़ना सिखाया,
पिता ही तो थे, जिसने हमको संभाला।
कभी रूठ जाती, कभी टूट जाती,
कभी छोटी बातों में ही उलझ जाती,
मगर उलझनों से सुलझना सिखाया,
पिता ही तो थे, जिसने हमको बनाया।
पढूंगी, लिखूंगी, हां कुछ तो बनूंगी,
नये हौसलों संग आसमां में उडूंगी।
नये स्वप्न संग हां कदम जब बढ़ाया,
पिता ही तो थे ,जिसने उड़ना सिखाया।
–
वन्दना नामदेव
अकोला, महाराष्ट्र
मेरी रचना स्वरचित एवं मौलिक है।