पिता
तड़के अंधेरे भोर में चुपके से उठ जाता हूं मैं,
शीघ्रता से निबटा कर काम घर से निकल जाता हूं मैं।
लड़ता हूं मैं सुरज से, लड़ता हूं मैं दुनिया से,
लड़ता हूं मैं लाचारी से, लड़ता हूं मैं किस्मत से।
रुकुंगा नहीं मैं,थकुंगा नहीं मैं, लड़ता हीं जाउंगा,
नन्हें नन्हें क़दमों को लिए सीढ़ियां चढ़ता हीं जाऊंगा।
हो कड़कती धूप या फिर घनघोर छमकती वर्षा हो,
सर्दी की ठिठुरन हो चाहे कांटों से भरा रास्ता हो।
लड़ जाउंगा हर बाधा से पार कर जाउंगा हर मुश्किल,
भरे हाथों को देख शाम को नन्हें चेहरे जायेंगे खिल।
नन्हें आंखों के सपनों को मंजील तक पहुंचाना हीं है,
लहु से सींच कर इन पौधों को आसमां तक पहुंचाना हीं है।
मुझको तो करना हीं है मेहनत के बल पर लड़ना हीं है,
आखिर एक पिता हूं मैं जीवन का जंग जीतना हीं है।
आराध्या राज (बोकारो)