पिता
पिता का साया मानो घने पेड़ का साया
उसके तले ढेर सारी छाया और फलों का अंबार
सर पर आशीष का हाथ सदा ही पाया
एक एक चाहत पर करते अपनी जान न्यौछावर
बचपन से ही नसीब ने छीना वह सरमाया
बदनसीबी ने आकर यह अजीब जाल बिछाया
हाथ छोड़ चल दिए फलक पर बनने सितारा
अपनी सुंदर चमक से रोशन कर हमें हर्षाया
चमक चमक कर मेरी डगर को किया आलोकित
कैसे बखान करूं उनके प्रेम की रिमझिम फुहार
अंधेरे से जूझते हुए चले हम उजालों की ओर
हकीकत में उन्होंने दिल का पन्ना कोरा ही छोड़ा
जननी की आंखों से हमने संसार है निहारा
कभी जमीं और कभी आसमां को नदारद पाया
सही कहा सभी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
प्रसन्न रहे रब की रजा पर उसी को बागवान बनाया
प्रभु द्वारा बनाए चमन में महक रहा मेरा जीवन ।।