पिता यत्र,तत्र, सर्वत्र विराजमान है
पिता के कथा की यात्रा का आरंभ अपनी इस कविता से कर रहा हूं
पिता पर कविता सूर्य को दीपक दिखाने जैसा है मैं डर रहा हूं
आप सभी का आशीष मिले ये सोचकर शब्दों को पंक्तियों में धर रहा हूं
पिता की जीवनी, आत्मकथा, कहानी और यात्रा-वृत्तांत में प्राण भर रहा हूं
आइए कविता आरंभ करते हैं।
अजी सुनिए भला पिता पर कविता लिखना इतना आसान नहीं है
एक कविता में पिता पूरा समा जाए हमको अभी इतना संज्ञान नहीं है
हर शब्द अभिव्यक्त अर्थ करेगा पर भाव अभी भी शेष रहेगा
क्योंकि मैं जानता हूं कविता लिखने वाला कोई भगवान नहीं है
पिता परिवार रूपी परमाणु के बीच में है पिता अनुवांशिकी के बीज में है
पिता करवा चौथ में है तीज में है पिता चूड़ी, सिंदूर, मंगल सूत्र में है पिता मां की हर चीज़ में है
पिता बच्चों के सूरमयी ताल में है पिता पालन पोषण के सांसारिक मायाजाल में है
पिता आपदा से बचाती अभेद्य ढाल में है पिता प्रगति की जलती अमर मशाल में है
पिता जीवन के जागृत गीत में है पिता रिश्तों के आबंध में है कर्मठ संगीत में है
पिता मां के मनभावन मीत में है पिता संस्कृति, विरासत और पावन रीत में है
पिता अटल दृढ़ संकल्प में है पिता नवीन सृजन के सम्पूर्ण कायाकल्प में है
पिता परमेश्वर के ही विकल्प में है पिता मेरी कविता के प्रत्येक कण कण के जल्प में है
पिता की सम्पूर्ण यात्रा वृत्तान्त का यह कविता किंचित मात्र भी आख्यान नहीं है
क्योंकि मैं जानता हूं कविता लिखने वाला कोई भगवान नहीं है
पिता कर्म धर्म यज्ञ हवन अनुष्ठान में है पिता पुत्री के पवित्र कन्यादान में है
पिता संतति की उन्नत उत्थान में है पिता सकल समृद्धि की शीर्ष उड़ान में है
पिता ईश्वर के अद्वितीय अविष्कार में है पिता वंश के विस्तृत विस्तार में है
पिता भावना के रस, छंद और अलंकार में है पिता कुटुम्ब के संचालक रुद्रावतार में है
पिता श्वास में है अटूट विश्वास में है पिता संबंधों के मधुर मिठास में है
पिता परिजन के परम विकास में है पिता मेरे किरदार के सबसे पास में है
पिता पुण्य तीर्थ में है चारों धाम में है पिता यत्न, प्रयत्न, प्रयास और व्यक्त परिणाम में है
पिता कालचक्र के प्रति याम में है पिता आकार,अविकार, निराकार सभी आयाम में है
पिता की जीवनी, आत्मकथा का पूर्ण विवरण दे दे ये कोई पितृ-महाकाव्य का गान नहीं है
क्योंकि मैं जानता हूं कविता लिखने वाला कोई भगवान नहीं है
पिता चीर चिंतन में है पिता विशाल हृदय के सतत् कंपन में है
पिता दु:ख,पीड़ा क्रंदन में है पिता संकट वाली घड़ी के आलिंगन में है
पिता संतान की असीम अभिलाषा में है पिता सजग अनवरत क्रिया की परिभाषा में है
पिता मर्म में है घनघोर मनवांछित आशा में है पिता क्रोधित रुप में दुर्वासा में है
पिता कण कण में समाहित रक्त में है पिता विचारों के स्वतंत्र अभिव्यक्त में है
पिता स्वयं से मुक्त परिजन आसक्त में है पिता यम, नियम, अनुशासन के अवसक्त में है
पिता जटिल प्रश्नों के जवाब में है पिता फर्ज के निभाते अनगिनत हिसाब में है
पिता भाग्य की लिखी हुई किताब में है पिता “आदित्य” से जगमगाते आफताब में है
“पिता”शब्द का अखिल आंकलन कर दे ऐसा कोई कवि प्रकांड विद्वान नहीं है
क्योंकि मैं जानता हूं कविता लिखने वाला कोई भगवान नहीं है
पूर्णतः मौलिक स्वरचित सृजन की अलख
आदित्य कुमार भारती
टेंगनमाडा़, बिलासपुर,छ.ग.