पिता के नाम पुत्री का एक पत्र
माँ को गुजरे साल हुए
यादें नित्य सताती है
छांव पिता की देख आज
आँखे भर भर आती है।
जग सारा दीपक समान
माता घृत समान है होती,
बनकर बाती पिता दिये की
बुझने कभी न इसको देती।
सहती कष्ट मातु नौमासा
पिता अनवरत सहता है,
अवसादों की तपती रेत में
बादल सा छा जाता है।
रहते हुए पिता के कोई
बांका बाल नही है होता,
ऐसे नही पिता पुत्री का
निर्विवाद रक्षक कहलाता।
कहता राजदुलारी हमको
रंक बना खुद फिरता है,
राजपाट अपना सर्वस्व
न्योछावर सहर्ष करता है।
हाथ डाल खाली जेबो में
कहता तुम्हे चाहिए क्या?
इतना बड़ा दिलासा झूठा
पापा देकर तुम पाते क्या?
बहुत कष्ट पाया तुमने
जब से जग में मैं आयी हूँ
पापा सही बोलना तुम
क्या सच मे परी तुम्हारी हूँ?
कई बार मैंने देखा है
माँ से छुप कर बातें करते,
मेरे भविष्य की चिंता में
खपाते तुम्हे और है घुटते।
था अलभ्य को जब पाया
छाती तेरी तब देखी थी
कुर्बान सौ पुत्रों पर बेटी
हाँ तुमने यही कही ही थी।
पापा क्या निहाल हुए तुम
चमक आँख में जो देखी
विकट संपदा चारो ओर
तेरे बिन पर जरा न भाती।
कहता बेटी लाज हमारी
इज्जत सदा हमारी बनना,
सर नहि नीचा होय कभी
ऐसा कृत्य कभी ना करना।
पिता दिये के बाती है
हाँ मैं उसकी थाती हूँ,
आज भी मेला उसके संग
नित्य स्वप्न में जाती हूँ।
निर्मेष जगत की रीति यही
विदा एकदिन करता है
मजबूत बना सबके समक्ष
मुहँ ढाप रोया करता है।
तुच्छ लगा सब लिखा हुआ
तेरे निमित्त मेरे पापा
दवा मात्र एक तुम मेरे हो
लाख दुःखों की हे पापा।
आओ लौट जहाँ भी हो
तेरे कंधे पर चढ़ना है
नही लुभाते बंगले कोठी
हाथ पकड़ संग चलना है।
निर्मेष