“पिता कुटुंब की धुरी”
पिता धुरी कुटुंब की,
घूमे सब चहुंओर।
श्रम-स्वेद बहा रहा,
नाच रहा मन मोर।।
ज़रूरत होती पूरी,
होता है पिता ज़रूरी।
मिले पिता अवलंब,
मिलता जीवन छोर।।1
मनोबल देता पिता,
मन निराश हो जाय।
आसानी से कट जाय,
हर मुश्किल का दौर।
बालक नाच नचाते,
घर में शोर मचाते।
कभी नरम रूप रहें,
हो जाते कभी कठोर।।2
-गोदाम्बरी नेगी
हरिद्वार (उत्तराखंड)