पिता का जाना
पिता का जाना
जैसे, आकाश का
छन से टूट कर बिखर जाना
चुभ जाना
अंग-प्रत्यंग में असंख्य सुइयों की तरह
जैसे, कैनवस पर उभर रहे सुन्दर चित्र पर
अनायास रंगों का ढरक जाना,
बच्चे के हाथों में अचानक गुब्बारे का फूट जाना
जैसे, नये वर्ष के आगमन की खुशियों में सराबोर
घर-परिवार पर बिजली का गिरना
अचानक, नींद टूट जाने से
खूबसूरत सपने पर पानी का फिरना…
पिता का सिर्फ होना ही काफी होता है
घर की खिलखिलाहटों के लिए
न होने पर कान तरस जाते हैं
लाठी के ठक-ठक की आहटों के लिए…
पिता,
जिसकी नहीं होती अपनी कोई ज़रूरत
जो देखना चाहता है बच्चों के होठों पर मुस्कुराहट
परिवार के लिए उसी तरह
ज़रूरी होता है बाप
जिस तरह ज़रूरी होता है
कच्चे घड़े को पकने के लिए आँवा का ताप
पिता का होना ज़रूरी होता है
मरते सपनों को ज़िन्दा रहने के लिए
वक़्त के थपेड़ों को
मुस्कुरा कर सहने के लिए
लेकिन
एक न एक दिन तो जाना ही होता है पिता को
और तब,
पिता का जाना
यानी, किस्मत का रूठ जाना
बेटा चाहे बीस साल का हो या चालीस का
एक झटके में
उसका बूढ़ा हो जाना
ऐसा होता है पिता का जाना।
© शैलेन्द्र ‘असीम’