पिता और प्रकृति
मूल प्रेरणा:-
कितना दूर जाना होता है पिता से, पिता जैसा होने के लिए ।
— अज्ञेय
(रचना:-)
मैं हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा सा दूर जाती हूँ पिता से, पिता जैसा होने के लिये।
मैं हर रोज़ मुस्काती हूँ अपने पिता सा, पिता जैसा होने के लिये।
मैं हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा एहसास लेती हूँ पिता से, पिता जैसा होने के लिये।।
मैं कमल बन खिल जातीं हूँ दिलों में, पिता जैसा होने के लिये।
मैं पानी बन उड़ जाती हूँ कभी, कभी प्यास बुझाती हूँ।
मैं अग्नि सी दहलाती हूँ, मैं दावानल कहलाती हूँ।
सिमटती मैं हवा में और सांसें बिखेरने आती हूँ।।
धरती और गगन का साथ देख,मन में हर्षित हो जाती हूँ।
किस्मत होती है गऱ मिलता,
पिता का साया और पिता सी छाया।।
ये नील गगन,पानी की बूंदें, मैं, मेरी दुनिया और मेरी माया
मैं अहम् को लेकर चलने वाली, है आंखों में हाला।
हो रही मैं भी पिता जैसी और जीवन है मधुशाला।।
– ‘कीर्तिका नामदेव’