पिता ऐसा अचूक प्रमेय है
पद पिता का संभ्रांत है
पर प्रेम सदा ही ध्येय है
अनसुलझे सवालों का हल है ये
पिता ऐसा अचूक प्रमेय है
त्याग व तप का प्रमाण है
जिसका त्याग सर्वथा ही ज्ञेय है
दो – दो हाथ करता मुश्किलों से
मुश्किलों पर विजय विधेय है
निज कुटुम्ब का सम्मान है
विपत्ति के सम्मुख अजेय है
क्षमता सहन की है असीमित
सहन शक्ति सदा अज्ञेय है
दुःख के पहाड़ को पिघला दे जो
पिता ऐसा आग्नेय है
क्या करेगा वक़्त उसका
जिसका धैर्य अपरिमेय है
-सिद्धार्थ गोरखपुरी