पिछले पन्ने 5
साल में एक बार माघी मेला लगता था। इस मेले में सिनेमा, नौटंकी,सर्कस,लैला मजनू बीड़ी कम्पनी एवं यमपुरी नाटक तथा तरह-तरह का खेल और झूला आता था। मेला के समय पढ़ाई से अधिक महत्वपूर्ण कार्य मेला घूमकर सामान्य ज्ञान वृद्धि करना होता था।सुबह होते ही गाॅंव का रौनक बदल जाता था और देर रात तक खेल तमाशा चलते रहता था। दिन भर स्पीकर में फिल्मी गाना बजने से वातावरण पूरा ही बदला बदला रहता। मेला घर के बगल में ही था। इसके बावजूद माॅं, चाची, बहन सब के साथ बैलगाड़ी पर बैठकर हमलोग फिल्म देखने मेला जाते थे। कठोर पारिवारिक अनुशासन के कारण माॅं, चाची,बहन सब पर्दे में ही रहती थी। जिस कारण से पैदल मेला नहीं जा सकती थी। जिस दिन फिल्म देखने की योजना बनती थी,उस दिन हम लोग एकदम शाम होने से पहले ही गाड़ीवान को तैयार कर रखते कि अगर वह कहीं इधर उधर चला जाएगा, तो फिल्म देखनी ही कैंसिल। माॅं, चाची सब तीन घंटे की फिल्म के समय अधिकांश समय बगल की गाॅंव से आई महिलाओं से बात करने में ही बीता देती थी। हाफ टाईम में हम लोग पापड़, मुंगफली, झालमुढ़ी खरीद कर खाते थे। बड़ा आनन्द आता था। जब तक हम लोग फिल्म देखते, तब तक बाबूजी, चाचा जी सब सिनेमा हॉल के मालिक के साथ बाहर में बैठकर बातें करते रहते थे। उसी समय हम लोग जानबूझकर सिनेमा हॉल मालिक से जान पहचान बढ़ाने के चक्कर में वहां जाते कि बढ़िया से पहचान ले और बाद में बेधड़क हाॅल में घुसने के समय रोक टोक नहीं हो। मेला के समय हम लोग सुबह में ही सिनेमा हॉल के पास पहुॅंच जाते थे और वहां से फेंका हुआ फिल्म का रील चुन चुन कर चुपचाप घर लाते थे। खिड़की,किवाड़ बंद कर घर को पूरा अंधेरा करते और बाबूजी की धोती का पर्दा टांग कर चुपके से बाबूजी के तकिया के नीचे रखे टॉर्च से फिल्म की रील पर रोशनी डाल टंगे हुए धोती पर फिल्म देखने का प्रयास करते। रील पर रोशनी पड़ने से रील की धुंधली तस्वीर धोती पर नजर आती। हम वैज्ञानिकों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। इसके बाद हमलोग इस पर शोध करने लगते कि पर्दा पर आदमी चलता कैसे है ? इस चक्कर में टाॅर्च की नई बैटरी जल जाती। शाम में बाबूजी टॉर्च में कम रोशनी देखने पर चिल्लाते कि कल ही नई बैट्री टॉर्च में लगाए हैं,तो रात भर में बैटरी कैसे जल गई ? इस पर माॅं कहती कि दुकानदार नकली बैट्री दे दिया होगा। इससे बाबूजी का गुस्सा और बढ़ जाता कि एवरेडी बैट्री थी कोई नकली बैट्री नहीं थी। घर का ही कोई महापुरुष टाॅर्च जलाकर छोड़ दिया होगा। हम लोग मुॅंह दाब कर चुपचाप माॅं बाबूजी की बात सुनते रहते।