पिघलती स्त्री
एक धुरी पर टिकी हुई स्त्री
अपने अस्तित्व के वर्चस्व को
कायम रखना जानती है…
वो नित जलाई जाती है पर
बदले में सिर्फ पिघलती है
प्रेम में
ममता में
समर्पण में…
जलती है, जलाती है खुद को
पर डटी रहती है अपने
वादों में
इरादों में
संभावनाओं में…
अपने आत्मसम्मान के लिए
दूसरों के सुख के लिए
जीती है
टिकती है
पिघलती है…
सालों ये सिलसिला चलता है,
कोई उसके अंतस की गहनता को
समझ नहीं पाता,
धीरे-धीरे जलती हुई स्त्री
बूंद-बूंद पिघलती है…
जाते-जाते भी
एक आसमान दे जाती है
प्रकाश का
उत्कर्ष का
उम्मीद का…
स्त्री
अपने वजूद के लिए जलती है
किन्तु उसे पता ही नहीं चलता
कब औरों के लिए पिघल गयी।
रचयिता—
डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’