पिंड दान
पिता का पिंड दान देते हुए अजय को लगा जैसे आज तक उसने अपने पिता को कभी एक मनुष्य के रूप में जाना ही नहीं , वे वृद्ध हो रहें होंगे और उनकी शारीरिक शक्ति कम हो रही होगी , उसने कभी सोचा ही नहीं था , उसने उनका अंतिम दिनों में पूरा ध्यान रखा था , परन्तु एक मशीन की तरह , भावना के स्तर पर उनकी मृत्यु भी उसे पूरी तरह नहीं छू पाई थी , परन्तु आज प्रयागराज के संगम में पुरोहित के वचन सुन वह जैसे तंद्रा से जाग उठा , पिता की भूख आज इस तर्पण से वह सदा के लिए शांत कर देगा , भूख का यह अहसास उसे अपने पिता और पुत्र के साथ एक साथ जोड़ गया ।
वह छोटा था तो पढ़ने में उसकी रूचि नहीं थी , पिता भी बहुत पढ़ेलिखे नहीं थे , एक छोटे शहर में कपड़ों का शोरूम था , आय पर्याप्त थी और वे चाहते थे उनका इकलौता बेटा अजय पढ़ लिखकर विदेश जाए और उनके बाक़ी भाइयों और उनके बच्चों की तरह , जीवन में सफलता पाए । उन्होंने उसके लिए बहुत से अध्यापक घर में रखवाए परन्तु अजय को न तो भाषा में रूचि थी , न गणित में, उसे दुकान पर ग्राहकों के बीच समय बिताना अच्छा लगता था, पिता थे कि वह इस सत्य को वर्षों तक स्वीकार ही नहीं कर पाए । वह उसकी बहुत पिटाई करते , दंड देने के नए नए तरीक़े आज़माते , परन्तु अजय टस से मस नहीं हुआ ।
धीरे-धीरे वह अपने पिता से दूर भागने लगा, वह एक तरफ़ से आते तो यह दूसरी तरफ़ से निकल जाता, दिन यूँ ही बीतते गए, अजय ने मां से कहकर शोरूम को एक मंज़िल और बढ़वा लिया , जहां वह रेडीमेड कपड़े बेचने लगा , वह नीचे तभी आता जब पिता बाहर गए होते , खाना खाने तभी जाता जब वे खा चुके होते ।
अजय काम में अच्छा था , और उसकी एक समझदार पढाीलिखी लड़की प्रिया से शादी भी हो गई । पिता को लगा , अब प्रिया के द्वारा वे अपने बेटे को फिर से पा लेंगे । उन्होंने अपना पूरा स्नेह और सम्मान अपनी बहु पर लुटा दिया , परन्तु वह पिता पुत्र के बीच के तनाव को कम नहीं कर पाई । सास की मृत्यु हो गई थी और अजय का अब अपना भी एक बेटा था । वह नहीं चाहता था कि वह अपने बेटे पर अपने पिता की तरह हाथ उठाए , परन्तु वह यह भी नहीं जानता था कि अपने बेटे के साथ किस तरह समय बिताए , पढ़ाने का तो खैर प्रश्न ही नहीं उठता था , बातचीत और खेलना भी उसे अजीब लगता था । पत्नी कहती , तुम इसलिए नहीं कर पा रहे क्योंकि तुम्हारे पिता ने कभी तुम्हें इस तरह से समय नहीं दिया , परन्तु यह बच्चे के लिए ज़रूरी है , और तुम्हारे लिए भी , नहीं तो तुम अपने बेटे से भी हमेशा खिंचे खिंचे रहोगे । अजय को यह बात बिलकुल समझ नहीं आती , उसने बेटे की पूरी देखरेख की ज़िम्मेवारी अपनी पत्नी प्रिया पर छोड़ दी और खुद बिज़नेस बढ़ाने में लग गया , बिज़नेस बढ़ता गया और इसके साथ उसका आत्मविश्वास भी । वह अपने पिता को पुत्र के साथ खेलते देखता और सोचता सब ठीक है , उसके पिता एक शक्तिशाली व्यक्ति हैं , और वह स्वयं वह सब कर रहा है जो उससे अपेक्षित है ।
एक दिन वह दुकान में नीचे उतरा तो उसने देखा, उसके पिता गुमसुम से कुर्सी पर बैठे है , कर्मचारी से पूछने पर पता चला कि उन्हें बुख़ार है , वह उन्हें रास्ते में डाक्टर को दिखाते हुए घर छोड़ आया , शाम होते न होते बुख़ार बढ़ गया और पता चला डेंगू हो गया है । दस दिन की बीमारी के बाद वे फिर से दुकान पर आने लगे , परन्तु उनका स्वास्थ्य फिर नहीं लौटा , कुछ समय बाद उन्हें निमोनिया हो गया और उसमें वह चल बसे ।
अजय ने सारी विधि से उनका अंतिम संस्कार किया , परन्तु वह कहीं भी जुड़ नहीं पा रहा था । उसे अब भी अपने पिता एक शक्तिशाली मनुष्य ही महसूस हो रहे थे । तेरह दिन के बाद प्रिया ने कहा ,” चलो हम तर्पण के लिए प्रयागराज हो आते हैं , वहाँ अपनी सारी उदासी , सारा क्रोध संगम में विसर्जित कर देना ।”
“ मुझे कोई क्रोध नहीं है ।” अजय ने दृढ़ता से कहा ।
पत्नी मुस्करा दी , “ ठीक है क्रोध को छोड़ो , उदासी विसर्जित कर देना ।”
“ मैं उदास भी नहीं हूँ । उन्होंने अच्छी ज़िंदगी जी थी । मैं उनके लिए खुश हूँ ।”
“ अच्छा बाबा हमारे लिए चले चलो ।” प्रिया ने लंबी साँस छोड़ते हुए कहा ।
प्रिया की ज़िद को पूरा करने के लिए वह प्रयागराज पिंड दान के लिए आ गया था , शास्त्रों के अनुसार यह वह तर्पण था जिससे उसके पिता की भूख सदा के लिए शांत होने वाली थी , वह धार्मिक नहीं था , बस प्रिया के कहने पर पंडित जी जो कह रहे थे वह करता जा रहा था , फिर भी पिंड दान देते हुए उसे पहली बार महसूस हुआ, उसके पिता की भी आवश्यकताएँ थी जिन्हें उसने कभी ठीक से समझा ही नहीं , वह भी बूढ़े हो रहे थे , आज वह जवान है और पिता की क्षुधा शांत कर रहा है , वह उनसे अलग तो कभी कुछ था ही नहीं । वापिसी पर उसने अपने पुत्र रोहण को अपनी गोदी में उठा लिया, पहली बार उसे लगा , उसके भीतर की विकलता शांत हो रही है , आज वह सही मायने में बाप बना है ।
शशि महाजन