पा मुबारक
तरही ग़ज़ल
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पा मुबारक इधर आते कभी फिर यार तेरे
एक मुद्दत से नहीं हो सके दीदार तेरे
राज़ की बात निगाहों ने बता ही डाली
दिल में इक़रार है लब पे भले इनकार तेरे
इक नज़र डाल दे आहों को क़रार आ जाए
“ज़ख्म हाथों में लिए फिरते हैं बीमार तेरे”
ये तेरी सुरमई मदहोश शराबी आँखें
हाय! क़ातिल से लगे हैं लबो-रुख़्सार तेरे
काश! इस बज़्म में तू भी कभी आ जाए ‘असीम’
दर्द-ए-उल्फ़त की दवा करते हैं अशआर तेरे
✍️ शैलेन्द्र ‘असीम’