*पास बैठो घड़ी दो घड़ी*
पास बैठो घड़ी दो घड़ी
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पास बैठो घड़ी दो घड़ी,
जिंदगी की जुड़ेगी लड़ी।
आन कर दो खत्म दायरे,
दूरियाँ दरमियाँ जों बड़ी।
खोल दो,बंद हैँ कुण्डियाँ,
आज दर पर तिरे हूँ खड़ी।
छोड़ दो जिद,करो यारियाँ,
तोड़ दो तुम यहीं पर अड़ी।
खामियाँ तो रहेंगी बहुत,
जंग तो जिंदगी की छिड़ी।
आँसुओं से भरे हैँ नयन,
बारिशों की लगी हो झड़ी।
मंजिलें मनसीरत पास में,
कोशिशें कीजिये यूँ कड़ी।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैंथल)