पावस पर
वर्षा की शाम सुहानी बादल से पूरित नील गगन
विस्तीर्ण शून्य मे कई कृति बनती रहती हर पन
कभी इंद्रधनु कभी सागर सी लहरो से मुदित रहा बचपन
कल्पना के अश्व दिखे है गर्जन चपला जैसे हो पूरा रन
यह देख कृति ईश्वर की उसकी छन छन बूदो से
सब ताप है मिट जाता जब जब बरसा करता है घन
हे श्रेष्ठ लीला को देख खुशी नर्तन करता है मन
पावस पर विशेष
विन्ध्यप्रकाश मिश्र