*पार्क में योग (कहानी)*
पार्क में योग (कहानी)
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पार्क में सुबह साढ़े पॉंच बजे से सात बजे तक योग चलता है । बस यूॅं समझिए कि पूरे पार्क के आकर्षण का केंद्र योग-स्थान है और पार्क में योग-स्थान पर पहुॅंचने के लिए घर से महिलाओं का आकर्षण रात को सोने के बाद से शुरू हो जाता है अर्थात रात को जब महिलाएॅं सोती हैं तो वह इन सुखद सपनों के साथ अपनी ऑंखें बंद करी रहती हैं कि सुबह होगी और हम पार्क में जाकर योग करेंगे ।
आरती को भी जब से पार्क में जाकर योग करने की आदत पड़ी तब से यह आदत कब छुटी ? आनंद दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया । घर में पति और बच्चे हैं। गृहस्थी की सारी जिम्मेदारी आरती के ऊपर है । पार्क से लौटकर पति और बच्चों के लिए चाय-नाश्ता बनाना ,फिर उसके बाद रसोई में खाने की तैयारी करना ! बस यूॅं समझिए कि जो जिंदगी की आजादी है ,वह तो पार्क में ही है। बाकी सब आजादी के नाम पर केवल भ्रम है ।
सुबह जब सूरज की किरणें थोड़ा-सा उजाला करना शुरू करती हैं तो सॉंसों में एक महक-सी आने लगती है । पार्क में लगभग पंद्रह महिलाऍं धीरे-धीरे जुड़ने लगी हैं।
एक गुरु जी हैं । वह अपने निर्देशन में सबको योग कराती हैं । गुरुजी तो एक नाम मैंने बता दिया अन्यथा उनका नाम तो कुछ और ही रहा होगा। लेकिन क्योंकि सब लोग उन्हें गुरु जी कहते हैं इसलिए हम भी इस कहानी में उन्हें गुरुजी ही कहेंगे। तो गुरुजी कोई गेरुए कपड़े पहन कर सन्यास लेने वाली महिला नहीं हैं। जैसे और पंद्रह स्त्रियॉं वैसे ही गुरु जी । उनकी भी घर-गृहस्थी है । पति और बच्चे हैं। लेकिन वह गुरुजी इसलिए कहलाती हैं क्योंकि उन्होंने योग-प्रशिक्षण लिया हुआ है । उनके जीवन में अनुशासन अधिक है । उनके कारण ही पार्क में अनुशासन रहता है ।
एक बार गुरु जी ने सब स्त्रियों को बताया भी कि देखो सॉंसों को अनुशासन में कर लो, फिर पूरा जीवन अनुशासित हो जाएगा । इसके बाद गुरु जी ने स्त्रियों को अपनी अनुशासित सॉंसों को दिखाने का भी प्रयत्न किया ।
“देखो ,मेरी सॉंसें कितनी अनुशासित हैं ! “गुरु जी ने अपनी सॉंसों की तरफ महिलाओं का ध्यान आकृष्ट किया । कुछ इस तरह कि मानो सॉंसें कोई वस्तु हों और देखने से दिख जाऍंगी।
महिलाओं ने भी सॉंसों को किसी वस्तु की तरह देखना शुरु किया। ऑंखें फाड़-फाड़ कर सब ने गुरुजी की सॉंसों को देखने का प्रयास किया । दो-तीन महिलाओं ने तो यह भी कह दिया कि गुरु जी हमें आपकी अनुशासित सॉंसें स्पष्ट दिख रही हैं । गुरुजी मुस्कुरा दीं ! पता नहीं क्यों ? हो सकता है ,उन्हें अपनी अनुशासित सॉंसें दिखती हो ? लेकिन वह यह भी जानती हों कि सॉंसों को देखा नहीं जा सकता। केवल अपनी सांसों को ही महसूस किया जा सकता है।
लेकिन जिन दो महिलाओं ने पूरी जिम्मेदारी के साथ गुरुजी की सॉंसों को देखने का दावा किया ,उनका कहना था कि अपनी सॉंसें तो सभी लोग देख सकते हैं लेकिन जब हम सॉंसों की क्रिया में कुछ आगे बढ़ जाते हैं तो हम दूसरों की सॉंसों को भी देख सकते हैं । देखने का अभिप्राय उनको महसूस करना होता है ।
फिर उस दिन पार्क में सॉंसों पर ही विशेष चर्चा होने लगी । सॉंसों में भी मुख्य चर्चा सॉंसों को देखने की थी । दूसरों की सॉंसों को जब हम देखते हैं तो यह उनकी ऑंखों ,होठों और शरीर के उतार-चढ़ाव से पता चलने लगती हैं। अगर सॉंसें अनुशासित होंगी तो शरीर बिल्कुल सधा हुआ नजर आएगा।
-एक बहन का यह निष्कर्ष था। सबने उनकी बात का समर्थन किया ।
धीरे-धीरे पार्क में सबकी समझ में यह आने लगा कि सॉंसें हमारी सहयात्री होती हैं । जिस तरह हम अपनी किसी सहेली के साथ भ्रमण करते समय एक नजर परिदृश्य पर रखते हैं तथा दूसरी सोई हुई नजर सहेली पर रहती है ,ठीक उसी प्रकार हमारी सॉंसें हमारी सहेली है । हम उस पर नजर रख सकते हैं । गुरुजी ने सबको समझाया -“अपनी सांसों को जरा भीतर नजर डालकर देखो और महसूस करो । सॉंसें दिखने लगेंगी। कैसी घूम रही हैं ? किस प्रकार चल फिर रही हैं ? सब कुछ तुम देख पाओगी ।
सॉंसें ही मनुष्य की शत्रु हैं और सॉंसें ही मनुष्य की मित्र होती हैं । जब यह तुम्हारे अनुकूल होंगी तो तुम्हारी मित्र बन जाऍंगी और तुम्हारा भला करेंगी। लेकिन अगर इनमें विकृति आ गई ,यह विकारों की शिकार हो गईं तो फिर तुम्हें बिगाड़ने में भी कोई कोर-कसर नहीं रखेंगी। बहुत जल्दी ही तुम इन पर काबू पा लोगी ।”-गुरुजी ने मुस्कुराते हुए सभी महिला अभ्यासियों को बताया ।
दरअसल काफी महिलाओं को सॉंसों की आंतरिक प्रवृत्ति का बोध नहीं हो पा रहा था । एक महिला ने तो ,जो काफी मुॅंहफट थी ,कह दिया सॉंसों में ऐसी खास बात क्या है ? बस सॉंस लेना और छोड़ना ही तो होता है ? उसके लिए कोई प्रयत्न क्या करना ? सीखना कैसा और सिखाना भी क्या ? सॉंसें लेना और छोड़ना सहज क्रिया है । इसमें टेंशन लेने की बात क्या है ?
अब पूरी मंडली कंफ्यूज हो गई । अब तक सब यह सोचते थे कि सॉंसों को विशेष रूप से समझने और समझाने की जरूरत है ,लेकिन जब एक दूसरा दृष्टिकोण सामने आया तो भ्रम फैल गया । सबने सोचा ,यह जो मुॅंहफट महिला कह रही है ,उसकी बात में भी सच्चाई है। सॉंसों का सीखना क्या और सिखाना क्या ? गुरुजी ने स्थिति की गंभीरता को भॉंप लिया । इससे पहले कि पार्क में योग शिविर की निरंतरता भंग हो, उन्होंने तुरंत उस मुॅंहफट महिला को चुप करा दिया । बोलीं- ” तुम बहुत बोलती हो । खुद तो सीखती नहीं हो ,दूसरों को भी सीखने के काम में व्यवधान पैदा कर देती हो । हम पार्क में सॉंसें लेने की क्रिया सिखाते हैं ,इसका मतलब ही यह होता है कि सॉंसों को अनुशासन में करना पड़ता है। आती सॉंस और जाती सॉंस को ध्यान से देखो और उनकी निगरानी करो । बस इतना-सा साधारण-सा काम है ।”-गुरुजी ने जब विषय का प्रतिपादन किया तो उपस्थित महिलाओं की बुद्धि फिर से बदल गई । उन्होंने स्वयं को लज्जित महसूस किया कि नाहक ही उस मुॅंहफट महिला के कहे में आकर उन्होंने सॉंसों की क्रिया को समझने के कार्य से अपना ध्यान हटा लिया । वह सोचने लगीं कि गुरु जी ठीक ही कह रही हैं । आती और जाती सॉंसों पर ध्यान केंद्रित करो । फिर सब अपनी आती और जाती सॉंसों को मौन रहकर देखने लगीं। उस दिन सबने काफी देर तक अपनी सॉंसों को किसी चौकीदार की तरह देखा और परखा । जब पार्क से सब महिलाऍं उठीं, तब सूर्य देवता कुछ ज्यादा ही पार्क पर मेहरबान हो चुके थे ।
“अरे ,आज तो बहुत देर हो गई “-आरती ने घबराते हुए कहा। “पतिदेव चाय के लिए इंतजार में बैठे होंगे । मुझे जल्दी जाना है।”
वास्तव में सभी महिलाओं को जल्दी थी । जब धूप देखा कि सड़क पर आ गई है तो पेड़ों की छॉंव से सब लोग उठ कर जल्दी-जल्दी अपने घर के लिए निकल लीं। बस यह आजादी के कुछ अंतिम मिनट थे। घर पहुॅंच कर फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाना था ।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451