©”पारितोषिक के नाम पर खेल भावनाओं के होने लगे हैं” -अमित कुमार दवे, खड़गदा
©”पारितोषिक के नाम पर खेल भावनाओं के होने लगे हैं” -अमित कुमार दवे, खड़गदा
उपहार – सम्मान समय के प्रवाह में बहने लगे हैं।
उपलब्धि के बजाय कारण पहचान का बनने लगे हैं।।
जब से उपहार सहज-सरल और सस्ते होने लगे हैं।
सच मानो सम्मान स्वयं ही अस्तित्व खोने लगे हैं।।
गली-मोहल्लों से उच्चतम प्रासादों में भी गिरने लगे हैं
जब से उपहार रेवड़ियों के समान यूँ ही बँटने लगे हैं।।
शिखर सम्मान भी सहज चकाचौंध में छद्म होने लगे हैं।
सामयिक बुद्धि के प्रभाव में व्याख्या नव गढ़ने लगे हैं।।
दबाव-प्रभाव-रिझाव में गरिमा अपनी नित खोने लगे हैं।
अब तो बड़े उपहारों के बाज़ार सरेआम सजने लगे हैं।।
हर स्तर पर केवल परितोष का कारण ये बनने लगे हैं।
पारितोषिक के नाम पर भावनाओं से खेलने लगे हैं ।।
अब तो बस करो और करवाओ सम्मानों का यह खेल
इसमें तो बस अब कोरी ठगी के व्यापार होने लगे हैं।।
आदर्श-उपलब्धि के भ्रम लोक में सहज फैलने लगे हैं ।
पारितोषिक के नाम पर केवल परितोष ही होने लगे हैं।।
सादर सस्नेह
©अमित कुमार दवे, खड़गदा