“””पाप-पूण्य”””
पाप-पुण्य की नगरी, ये मानव जीवन।
पाप-पुण्य की घघरी, ये मानव जीवन।।
कर्म रूप हो ईश्वरी, पुण्य कहा जाता है।
कर्म रूप हो राक्षसी, पाप गिना जाता है।।
पुण्य कमाया जीवन भर, स्वर्ग द्वार पाएगा ।
पापी, घिसट-तड़प कर, नरक राह जाएगा ।।
राम-रहीम, ईश-गुरु, ये रस पुण्य आधार।
बैर, द्वेष, मद, लोभ, सभी पाप अवतार।।
लोटा,पुण्य-प्रताप का, परमात्मा से मिलाय।
घड़ा पाप सर पर धरे, कष्ट अनेक उठाय।।
प्रायश्चित भी हल नही, जो करे पाप उद्धार।
पाप सोच दलदल ऐसी, जो करे नर संहार ।।
मोक्ष, मुक्ति पाना है, राम जपन कर ले ।
सत्संगी मन भक्ति रस में, खुद को तपन कर ले।।
संतोष बरमैया “जय”
कुरई, सिवनी, म.प्र.