पानी का बुलबुला
पानी का बुलबुला ….
सुबह सुबह मिट्टी मे कुछ पंखुडी देख
कदम ठिठक गए
कौतूहल वश ……….
फूल की दशा देख मन बहक गया
गौर से देखा तो गुलाब की पंखुडी थी
याद आया अभी कल ही तो पौधे मे सजी थी
उसकी खूबसूरती सबको बहका रही थी
हर आने जाने वालो को ठगा रही थी
अपने यौवन पे चहक रही थी
पौधे की डाली पर गुमान से लहक रही थी
पर आज मलिन सी मिटटी मे पडी थी
न संगी न साथी अकेले ही पडी थी
मन चित्कार उठा ………….
सचमुच इंसान हो या पुष्प
सबकी यही नियति थी …
फिर क्यू राग ..द्वेष …और गुमान की द्रष्टी है
मिट्टी से उठा है मिट्टी मे मिल जाएगा
. पानी का बुलबुला है पल मे ढल जाएगा …
न कद्र स्वंय की करी है न ही करी थी
सचमुच गुलाब की पंखुडी मिट्टी मे मिली थी
न संगी न साथी अकेले ही पडी थी !
नीरा रानी ….