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6 Aug 2020 · 5 min read

पानीपत की तीसरी लड़ाई

दो चचेरे भाई एक ही घर में पले बढ़े ।उम्र में भी कोई चार पांच महीनों का ही फर्क होगा।

एक बिल्कुल गोरा चिट्टा तो दूसरा साँवला पर आँख नाक तीखे।

छोटे वाले ने अपने ऊपर के सामने वाले दाँतों के बीच थोड़ी जगह रख छोड़ी थी , इसलिये बचपन में, वह मुँह में आये थूक को अपने दाँतों के बीच से पिचकारी की तरह निकालने में सक्षम था, ये बात दूसरे को खलती थी क्योंकि उसके दांत बिल्कुल सटे हुए थे । एक बार नकल की कोशिश के दौरान , थूक ठुड्डी से टपक कर कमीज पर ही गिर पड़ा।

मतलब,
होंश संभालते ही एक दूसरे की टोह लेने और प्रतिद्वंदियों की तरह निरीक्षण परीक्षण, सब शुरू हो गया था।

और ये ख्याल भी था कि चाहे कुछ भी हो, है तो भाई ही।

फिर एक ही साथ स्कूल जाने लगे। बाल सुलभ प्रतियोगिता चोरी छुपे लगातार जारी थी। एक दूसरे से आगे निकलने का जज्बा भी था।

साथ ही धीरे धीरे एक दूसरे के व्यक्तित्व को समझने भी लगे थे और ये भी ठान लिया था कि एक दूसरे से करना भी कुछ अलग ही है।
हाथोंहाथ कार्रवाई भी हुई, पहले को दायीं तरफ से कंघी करता देख, दूसरे ने भीष्म प्रतिज्ञा लेकर अपने बालों की माँग फिर बायीं तरफ से ही निकाली।

बचपन में फिर सोचें भी उसी दिशा में ढलनी शुरू हो गयी। एक थोड़ा धीर गंभीर बनने की कोशिश में जुट गया क्योंकि बड़ा वाला मुखर, बेबाक और जोश वाली खूबियाँ अपने कब्जे में कर चुका था।

छोटे वाले ने अपनी लंबाई बढ़ानी शुरू कर दी और आकार में बड़ा दिखना शुरू किया,
दूसरे ने फिर अपने छोटे कद के बावजूद उससे तेज दौड़ने का अभ्यास शुरू कर दिया और जीतने भी लगा।

कुल मिलाकर, संतुलन बनाने की कोशिश दोनों तरफ से जारी थी।

हार किसी ने भी नहीं मानी थी।

अच्छी बात ये थी कि मन ही मन एक दूसरे की खूबियों का आदर करना संस्कारों से सीख रखा था, शालीनता भी फिर दोनों के बीच घुसकर साथ साथ ही चलने लगी।

आस पड़ोस के साथियों में दोनों की अलग अलग सी साख भी बनना शुरू हो गयी।

एक दूसरे की गलतियों और कमियों के बारे में, दूसरों के कान भरने पर मुस्कुराते तो जरूर थे, पर ये भी बिन कहे औरों को समझा रखा था कि ये हल्के फुल्के हँसी मजाक तक ही सीमित है, इसमें किसी तीसरे के पड़ने की रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं हैं।

पानीपत की पहली लड़ाई शायद, दोनों के ठीक से बोलने आने
के पहले, एक साथ एक ही पीढ़े पर बैठने की धक्का मुक्की और एक दूसरे को दाँतों से कांटने से शुरू हुई थी, इसी दौरान गलती से खुद की जीभ दाँतों के बीच आ जाने से ,जीभ पर एक दाना उभर आया, और उस लड़ाई के साक्ष्य के तौर पर जिंदगी भर मौजूद रहा , मुंह खोल कर हंसने पर युद्ध के अवशेष की तरह अक्सर दिख जाता था।

दूसरी लड़ाई उससे ठीक १२ वर्षो बाद कंचा खेलते वक़्त हुई थी, पास खड़े दोस्त मूक खड़े रहे, किसी एक का साथ देकर,दूसरे से दुश्मनी लेने का साहस उनमें नहीं था। इस बार दाँतों से एक दूसरे को नहीं काटा गया, क्योंकि वो पहली पीढ़ी के अस्त्र थे, अबकी बार लात और घूँसे चले, पांच सात मिनट तक भीषण युद्ध होता रहा, दोंनो पक्षो को चोटें आई, थोड़ा बहुत खून भी बहा।

युध्द के बाद अब शांति बहाल हो चुकी थी पर शीत युद्ध कुछ दिनों तक चला।

बातचीत पूरे दो तीन सालों तक बंद रही।

एक दूसरे से बचकर चलने की कोशिश चलती रही।

पर दोनों सहपाठी भी थे और पढ़ने लिखने में भी तेज थे । पढ़ाई के दौरान यदा कदा ,एक दूसरे की जरूरत अब महसूस होने लगी थी।
कोई एक दिन विद्यालय या ट्यूशन क्लास में नहीं गया तो उसकी भरपाई दूसरे की कॉपियां ही कर सकती थी। इसके लिए स्कूल के अन्य दोस्तो से मदद लेने पर घर- मोहल्ले में हुई लड़ाई की खबर स्कूल तक पहुंचने का भी खतरा था, जो अस्वीकार्य था!!

इन सब से बचने के लिए बीच का रास्ता निकाला गया,

पांच छह वर्ष छोटे इस खाकसार छोटे भाई को बहुत कच्ची उम्र में दोनों के संयुक्त राजदूत के महत्वपूर्ण पद को संभालने की चुनौती मिली।

ताकि शांति वार्ता का रास्ता भी बन सके और मसले का हल भी तो करना था।

मुझे लिखा पढ़ा कर एक दूसरे के कमरों में भेजा जाता था कि ये कॉपी या किताब देकर या लेकर आओ। कागज के पुर्जो में प्रश्न भी भेजे जाने लगे ताकि दूसरे को इसका उत्तर मालूम हो तो हल कर के भेजे।

एक दूसरे की इन छोटी मोटी सहायताओं के लेन-देन की कृतज्ञता, ट्यूशन क्लास से लौटते वक्त, रास्ते में साईकल रोक कर, दूसरे पैदल चलकर आने वाले को,पिछली सीट पर बैठा कर दिखाई जाने लगी,

साईकल के सामने वाले डंडे पर ये सोच कर नहीं बैठाया जाता कि चलाते वक्त एक दूसरे को स्पर्श करने का मौका, जाने अनजाने आ सकता था, जो दुश्मनी तोड़ने में सहायक सिद्ध हो सकता था!!!
गाँव देहात की सड़कें भी तो कमबख्त दो दो कदम चल कर अपना खाया पीया फैलाकर बैठ जाती है और गलियों की तो पूछो ही मत ,जाने कब किधर घुम जाएं।

घर आने के पहले , मोड़ पर ही साईकल को पैरों से रुकवा कर फिर एक पैदल चलना शुरू कर देता।

घरवालों के सामने दुश्मनी अब भी दिखनी जरूरी थी।

इन चक्करों में, मेरी उपयोगिता में दिनोंदिन इजाफा हुआ ,साथ ही उनकी नजरों में कद और खुद की सूझबूझ भी थोड़ी बढ़ी कि राजदूत को सिर्फ आधिकारिक भाषा ही इस्तेमाल करनी है और साथ साथ तटस्थ भी रहना होगा।

पर मैट्रिक की परीक्षा में अंकगणित के कठिन प्रश्नपत्र ने सारे झगड़े को एक ही क्षण में खत्म करवा दिया।

मुसीबत में एक दूसरे के काम भाई ही तो आते हैं। फिर साझा तरीके से प्रश्न पत्र को सुलझाने के प्रयास में ,दोनों भाई इशारों इशारों और खुसफुसाहट करते बोल ही उठे।

परीक्षा कक्ष के बाहर उत्तरों का मिलान, शुद्ध हिंदी भाषा में रुके हुए गले को साधने के लिए किया गया।

घर की बोलचाल की राजस्थानी भाषा में बातचीत भी, दो तीन दिन बाद, बंद पड़ी लाइन की वजह से, आयी गड़बड़ी और रुकावट को दुरुस्त करके, बहाल कर ली गयी।

पानीपत का तीसरा युद्ध आजीवन शांति समझौते के तहत टाला जा चुका था।

घरवालों ने राहत की एक लंबी सांस ली।

Language: Hindi
2 Likes · 2 Comments · 652 Views
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