पानवाली
” पानवाली”
अगली बार जब पंचायत चुनाव की घोषणा हुई तो पानवाली ने महीधर के खिलाफ पर्चा भर दिया। यह खबर जंगल में आग की तरह गाॅव- जेवार में फैल गयी। कुछ ने कहा उसे पर्चा उठाना ही पड़ेगा। महीधर को नहीं जानती है अभी ़ ़ ़। परधानी के चार कार्यकाल निर्विरोध पूरे होने के पश्चाद् महीधर के समक्ष किसी ने ताल ठोका। वह भी एक साधारण परिवार की स्त्री ने। पर्चा दाखिल करने का अर्थ यहाॅ चुनाव जीतना था। लड़ी और जीत भी गयी। यह जीत उसके महत्वाकांक्षा की नहीं अपितु उसके साहस का था। और साहस था प्रताड़ित जनता को भय से मुक्ति दिलाना। बीसियों साल से रुके हुए विकास के काम होने लग गये थे। गलियों की दशा एक एक कर सुधरने लगी थी। गलियों के पक्के निर्माण से पानी का रास्ता भी व्यवस्थित हो गया । सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह था कि चुनाव में प्रत्याशी बनने की राह खुल चुकी थी। लोग सरकारी योजनाओं के बारे में जानने समझने लग गये थे। गाॅव उसके इस प्रयास से खुश था और गाॅव की निरपेक्ष सेवा करके पानवाली ़ ़ ़। यदि कोई अड़ंगा लगाता तो हारा हुआ पुराना प्रधान महीधर।
गाॅव की एक आम बैठक शिवमंदिर पर चल रही थी। आमसभा में किसी बात का बतंगड़ बना कर महीधर यानि हारा हुआ प्रधान उससे तू तू , मैं मैं, करने लगा। फूहड़ – पातड़ गालियाॅ ़ ़ ़
शैतान स्त्री का सम्मान तभी तक रखते हैं जब तक वह उनके संकेत पर नर्तन करे।
शैतान के लिए कुछ भी वर्जित नहीं होता । पानवाली ने खतरे को भाॅपते हुए भीड़ से गुहार लगायी – “आप सब नामर्द हो क्या…? कोई इसे रोकता क्यों नहीं ़ ़ ़ ?”
”हाॅ मर्द तो तुम्हारा वह राकेशधर है जिसकी रखैल बनने में भी तुम्हें शरम लाज नहीं ़ ़ ़ । सुना है अपने को बड़का पत्रकार कहता फिरता है। बुला ले उसे भी। छिनैल कहीं की ़ ़ ़ ”
“ यह बे-शर्म इतनी गालियाॅ दिए जा रहा है और आप लोग तमाशा देख रहे हैं ”
मंदिर का चबूतरा और चबूतरे पर शैतान से जीवन की सबसे कठिन लड़ाई लड़ती हुई एक बे-बस अबला ़ ़ ़। शैतान को भीड़ का मनोविज्ञान पता था। प्रतिक्रियाहीन भीड़ से शैतान ही ताकतवर होते हैं। भीड़ पहले से और घनी होने लगी थी । उन्हें गाॅव के रंगमंच का सबसे बड़ा रोमांचक व जोखिम से परिपूर्ण अभिनय की अंतिम परिणति जो देखनी थी। तमाशबीनों को चर्चा करने के लिए सदैव मसाले की जरुरत होती है। जिस पर साल भर यहाॅ- वहाॅ बैठकर नमक मिर्च लगाकर बतकुच्चन किया जा सके।
पानवाली की गुहार सुनकर भी सभी अपने- अपने घोंघाकवच में सुरक्षित ही रहे। रोकना- टोकना तो दूर यदि कुछ उल्टा- सीधा हुआ तो वे गवाही करने से भी मुकर जाएंगे। अगर गवाही करनी भी पड़ी तो महीधर की तरफ से करना सुरक्षित रहेगा। ये वही लोग हैं जो विभिन्न सरकारी योजनाओं से येनकेन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करने वास्ते पानवाली के आगे पीछे घूमा करते थे। और …हुआ वही जिसका डर था । महीधर ने उसका सिर पकड़कर दीवाल से लड़ा दिया…रोमांचकारी दंगल का अंतिम दृश्य देखकर भीड़ सिर पर पैर रख भाग खड़ी हुयी।
मेरा पानवाली से क्या लगाव था यह तो ठीक से मुझे नहीं पता। बस विचारों में कुछ सामंजस्य भर था। मैं उन दिनों शहर में रह कर पढ़ाई कर रहा था। गाॅव में पहली बार एक पान की दुकान खुली थी जहाॅ बैठती थी एक स्त्रीदेह। उसकी दुकान मुख्यरुप से परचून की थी । उसी को विस्तार देते हुए पान भी लगाकर बेचने का एक उपक्रम किया गया था। इसी वजह से गाॅव वाले उसे पानवाली के नाम से उद्धृत करते। वैसे गाॅव की वोटरलिस्ट में उसका नाम सुरेखा अंकित था । जो अधिक नहीं साल-डेढ़ साल पहले ही गौना होकर इस गाॅव की नागरिक बनी थी । जब वह गौना होकर आयी उस समय उसके आदमी महंगू साह की एक टूटी -फूटी पैत्रिक दुकान भर थी। नया पुरान होते ही उसने उजड़ी हुई दुकान को अपने तईं सहेजना शुरु कर दिया। यह उसके लिए प्रबन्ध कला कम आजीविका के लिए साधन अधिक था। काठ की सूखी आलमारियाॅ सामानों से भरने लग गयी थीं । जैसे भूख से सूख चुकी ठठरियाॅ खुराक मिलने पर मांस की परतों से ढ़कने लग जाती हैं। वह एक हॅसमुख युवती थी और स्वभाव में मजाकिया एवं मुॅहफट । सौन्दर्य उसके शरीर में भी था और उसके प्रबन्ध में भी। बे-तरतीब चीजें और उदासीनता उसे पसंद नहीं य चाहे घर हो, गाॅव हो, गली हो, मुहल्ला हो। बस उसकी नजर पड़नी चाहिए।
पुुराने शौकीन जिन्हें पान चबाने हेतु गाॅव से एक मील दूर साइकिल उठाकर बाजार जाना पड़ता था अब वहाॅ बैठने उठने लग गये थे। मशगुल्लह करते इधर- उधर की बात बतियाकर समय काटते। सरकारों के काम काज पर चर्चा होती । सरकारें बनतीं- बिगड़तीं। और भी देश -दुनिया की तमाम बातें। कुछ इस उम्मींद में बैठते कि पका आम कभी न कभी चुएगा ही।
पान का शौक मुझे भी था ही। देखा देखी पाप देखा देखी पुन्य की तर्ज पर मैं भी वहाॅ बैठना शुरु कर दिया। सच कहूॅ तो उस वक्त मेरी भावनाएॅ भी दूध की धुली नहीं थीं। इन सबके बीच पानवाली की संवाद शैली ऐसी कि सामने वाला कुछ उल्टा पुल्टा कहने की हिम्मत ही न जुटा पाए। उसके लिए पेट की बात उगलवा लेना बाएॅ हाथ का खेल था। क्या स्त्री ? क्या पुरुष ? उसके लिए सब समान थे। इसी कारण उसके पास पूरे गांव की खबर रहती। किस के घर आज क्या पकने जा रहा है किसके यहाॅ कहाॅ से मेहमान आने वाले हैं किस लिए आने वाले हैं। किसके उपर कौन डोरे डाल रहा है किसके साथ किसका चक्कर चल रहा है। उसे सब पता रहता। उस समय संचार सुविधा नहीं थी। सो गांव की हर खबर वहाॅ से उठायी जा सकती थी।संचार की भाषा में कहूॅ तो उसकी दुकान गाॅव का एक ह्वाटस्-अप समूह थी। जहाॅ सभी अपनी -अपनी सूचना साझा करते टिप्पणी करते। हा़ ़ ़ हा़ ़ ़ करते। सहानुभूति वाली बात पर सहानुभूति दिखाते। धीरे -घीरे उसकी दुकान ग्राम प्रधान महीधर के विकल्प पर चर्चा करने के केन्द्र में परिवर्तित होती चली गयी। उसकी बे-बाक बोल के कारण लोगों ने उसे भावी प्रधान कहना शुरु कर दिया ।
एक बार मैं वहीं बैठा हुआ था कि महीधर प्रधान का कारिंदा रामधन बड़ी तेजी से दुकान में आया।
सहुआइन दो किलो दाल एक किलो चीनी और सब्जी आदि तौल दीजिए । ब्लाक से बी डी ओ साहब और उनके कुछ कर्मचारी आए हैं गली के निर्माणादि का निरीक्षण करने ़ ़ ़
पैसे लाये हो ़ ़ ़
“प्रधान जी ने मंगवाया है” रामधन ने कहा
”पहले जो उठा उठा कर ले गये वह तो दिया नहीं य फिर कौन देगा तुम्हारे बेईमान परधान को उधार ?“
”तो जाऊॅ ़ ़ ़“
रामधन चला गया।
“पहले का पैसा कितना है ?” मैं वैसे ही पूछ बैठा।
”कितना है ़ ़ ़? पूछते हो ! इनकी तो (अपने पति के लिए) दुकान ही खंखड़ कर दी उधार ले ले कर इस परधान ने य अब दुबारा जैसे तैसे मैंने ऋण लेकर चालू किया है। अब इसे भी निगलना चाहता है यह हरामखोर ”
” जो भी हो अब इसको एक पैसे का भी उधार नहीं देना है। गांव के और सब दुकान वाले प्रधान के कारिंदो को देखकर ही दुकान बंद कर देते हैं। या झूठ बोल देते हैं सामान नहीं है। सबका खा खाकर भी इसकी हाॅड़ी पर परई नहीं बैठ पायी है अभी तक “
“ तो यह है इसकी हैसियत ़ ़ ़? छोटे आदमियों को जीने नहीं देते ये लोग “
“कहो तो छाप देता हूॅ अखबार में इसकी असलियत। बे- आबरु हो जायेगा। जहाॅ जायेगा ’थू’. ’थू’ होगी । परधानी जायेगी सो अलग ”
” सच ़़ ़़ ़?“
“हाॅ य और क्या ? बस तुम अपनी बात पर अड़े रहना ”
”वैसे भी गाॅव के विकास का सब पैसा डकार रहा है “
जैसे वह कब से इस तरह का कोई आधार तलाश रही हो जो परधान के विपरीत खुल कर उसका साथ दे। लता बिना सम्बल के जमीन पर फैलती है और सम्बल मिलते ही उपर बढ़ने लगती है।
“मैं क्या इससे डरती हूॅ ़ ़ ़ रत्तीभर भी नहीं। इसे लगता है बनिये की छेर मरकही नहीं होती। ”
उसकी दुकान से कुछ ही दूर महीधर प्रधान का घर था। और वह वर्षों से निर्विरोध ग्राम प्रधान चुना जा रहा है। सच्चाई यह थी कि उसे कोई पसंद नहीं करता था तब भी। जब कोई सामने उभर कर आयेगा ही नही ंतो निर्विरोध चुने जाने में रुकावट कैसी ? उपर से एक दूसरे को आपस में लड़ाकर पैरवी के नाम पर पैसा ऐंठना उसकी फितरत में शामिल है । दबंगई ऐसी कि पुलिस वाले भी सलाम ठोंकते। पूरा गांव त्राहि माम् कर रहा था किंतु हल कुछ नहीं। इस बात को पानवाली भी महसूस कर रही थी। किंतु जरुरत थी उसे एक साथी की। पति तो स्वभाव से ही नरम था। उसने मुझे भाॅप लिया था कि मैं महीधर का विरोधी हूॅ।
मैं जब भी बनारस से घर आता तो पहले पानवाली के यहाॅ थोड़े समय के लिए रुकता। उसका कारण यह भी था कि मेरे घर से पहले उसकी दुकान पड़ती थी। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता था।वह देखते ही टोक देती।
एक बार मैंने उसके व्यक्तित्व से मिलती जुलती कहानी लिखकर अखबार को भेज दी। कुछ दिनों में वह सचित्र छप भी गयी। छपी हुई कहानी लेकर मैं पानवाली के घर दाखिल हुआ । उसे कहानी बहुत पसंद आयी थी। आती भी क्यों नहीं। कहानी का पाठ्यवस्तु उसके इर्द- गिर्द का ही था। उसकी दृष्टि अखबार में थी और मेरी उसके कपोलों पर। कहानी के विकास के साथ ही उसके चेहरे पर हॅसी रेंगने लग गयी थी। और समापन होते होते शेफालिका के झड़ने लग गये थे फूल।
”मेरी इस कहानी की नायिका तुम ही हो“
थोड़ा लजाते हुए कहा ”धत्त ़ ़ ़“
”बबुआ जी आप भी मजाक करते हो ़ ़ ़ इसमें मेरा नाम तो नहीं ?“
”नाम से क्या फर्क पड़ता है। कहानियों के पात्र काल्पनिक ही होते हैं वास्तविक नहीं। केवल चरित्र का मिलान होता है।“
”अच्छा ़ ़ “
इतना सुनते ही वह नाश्ता बनाकर ले आयी। खाते वक्त गेहूॅ के डण्ठल से बना हुआ बेना झलने बैठ गयी थी उस दिन । उसके लिए मैं अतिथि देवो भव ये कम नहीं था। मैं बीच- बीच में बातों के बहाने उसके हॅसमुख चेहरे को देख कर खुश होता। मेरे और पानवाली की नजदीकियों की खबर गाॅव में चर्चा का विषय बनने लगी थीं। लोग न जाने क्या- क्या कयास लगाने लगे थे। उसे मेरे उपर इतना यकीन क्यों हो गया था मैं नहीं बता सकता।
उसने एक बार बताया था कि महीधर प्रधान की नजर उसके खाली जमीन पर लगी है । जमीन महीधर के सामने थी।वह उस जमीन पर सार्वजनिक शौचालय बनवाने के नाम पर हड़पना चाह रहा था। जिसके लिए उसने उसे गाॅव का उपप्रधान बनाने का लालच दिया है।
मैंने भी कह दिया इतनी बेवकूफ भी नहीं हूॅ और न तुम्हारे कृपा पर राजनीति करनी है । मैं चुनाव जीतकर प्रधान बनूॅगी। उसने यह भी बताया था कि वह इसी तरह लालच देकर सबको ठगता रहता है। उप प्रधान का लालच देकर दुकान से उधार खाना चाह रहा होगा।
मैं अब वह राकेश नहीं रह गया था जो पहली बार उसकी दुकान में बैठते वक्त था। समय के साथ मेरा कोयला हीरा बनता चला गया।
राजधानी लखनऊ में प्रदेश भर के पत्रकारों का पुरस्कार वितरण समारोह। मंच से पुरस्कृत होने वाले पत्रकारों का नाम पुकारा जा रहा था। और अब ़ ़ ़
“राकेशधर शर्मा वाराणसी ़ ़ ़“
समारोह स्थल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा ़ ़ ़
मेरे जीवन का सबसे बड़ा दिन ।
एक सफल आदमी के पीछे किसी महिला का हाथ होता है यह बहुत बार सुना है । किंतु किसी सफल महिला के पीछे किसी पुरुष का भी हाथ हो सकता है ऐसा कभी नहीं सुना। कौन किससे कितना सफल रहा? उससे मैं, अथवा वह मुझसे ? यह सवाल आपके हाथ छोड़ता हूॅ। मैं पहली बार उससे नजदीकियाॅ बढ़ाने के लिए झूठ बोला था कि मैं एक पत्रकार हूॅ ़ ़ ़़़़ । मैं अपने बोले हुए झूठ को सच करने में लगा रहा और वह उसी झूठ की रस्सी के सहारे महीधर जैसे बेईमानों के खिलाफ गाॅव का नेतृत्व करने लगी।
मैं अपने तमाम परिजनों, मित्रों, चहेतों से घिरा हुआ होकर भी अपनी पत्रकारिता की पराकाष्ठा के साथ अकेला हूॅ क्योंकि इस उपलब्धि को देखने के लिए वह पानवाली इस दुनिया में अब नहीं ़ ़ ़
मोती प्रसाद साहू