पात्रता
विद्या ददाती विनयम , विनयाद याति पात्र ताम।
पात्रत्वात धन मापनोती धनात धर्म तत: सुखम् ।
विद्या हमें विनम्रता प्रदान करती है विनम्रता से योग्यता आती है और योग्यता से हमें ज्ञान प्राप्त होता है जिससे हम धर्म के कार्य करते हैं और हमें सुख मिलता है। विद्या का मूल उद्देश्य ज्ञान के द्वारा व्यक्ति को विनम्रता प्रदान करना होता है ज्ञानी व्यक्ति सदैव विनम्र होता है यह शाश्वत सत्य है। कहते हैं फलदार वृक्ष ही झुकते हैं। यदि ज्ञान अर्जित करने वाला व्यक्ति विनम्र नहीं है तो वह दंभी होता है उसे व्यक्ति को अपने क्षुद्र ज्ञान का अहंकार होता है ,और वह अपने ज्ञान का ढिंढोरा पीटा करता है । वह व्यक्ति ज्ञान द्वारा अर्जित विनम्रता का उपयोग चाटुकारता भ्रष्टाचारिता व व्यसनों को अर्जित करने हेतु करता है, ऐसा व्यक्ति नास्तिक व अविवेकी होता है ।उसका क्रोध उसे निरंतर अपयश का भागीदार बनाता है। ऐसा अहंकारी व्यक्ति सर्वथा अयोग्य अत्यंत स्वार्थी होता है ।
अतः जब विद्या से विनय अर्जित किया जाता है तभी वास्तव में योग्यता प्राप्त होती है जिससे आप प्रतिष्ठा व उच्च सामाजिक प्राप्त कर सकते हैं । अर्जित धन का सदुपयोग कर सकते हैं जिससे विनम्र व्यक्ति समस्त मानसिक, भौतिक, सामाजिक सुख अर्जित करता है।ऐसे ज्ञानी व्यक्ति सदैव परमार्थ हितार्थ जीवन जीते हैं ।
महाकवि तुलसी कहते हैं “परहित सरिस धर्म नहीं भाई ,
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई “।
परोपकार अर्थात दूसरों का भला करना ही धर्म है दया करुणा और क्षमा है, धैर्य है, स्वास्थ्य त्याग है ,तभी आप परहित कर सकते हैं ।
दूसरे को पीड़ा देना कष्ट देना दुखी करना नीचता का काम है इसे पाप कर्म माना गया है किसी भी प्राणी को दुख देना अति नीचता का कार्य है।
धर्म की उपरोक्त परिभाषा ज्ञानी व्यक्ति को योग्यता प्रदान करती है और अज्ञानी व्यक्ति को अयोग्य निश्चित करती है।
डॉ. प्रवीण कुमार श्रीवास्तव “प्रेम “