पागल
पागल
+सन्तोष खन्ना
सड़क के किनारे
एक पागल
अनाप-शनाप बकता है
पुलिस का सिपाही
डंडा दिखा उसे
हांक कर ले जाता है
उसकी बातों पर हंसता है
सिपाही के हटते ही
पागल फिर आ धमकता है
और अनाप-शनाप बकता है-
‘ मैं प्राइम मिनिस्टर हूं
देश का रखवाला हूं
लोकतंत्र, जनता,
वोट ,कचहरी ,कमीशन
सब मुझ में समाए हैं
मैं ही भगवत गीता का
कृष्ण काला हूं
मैं जब भी आता हूं
लोकतंत्र उठ मुझे
सलाम बजाता है
मैं बैठ जाऊं तो
वह मर जाता है।
मुझे कमीशन बैठाने
और कमीशन खाने का
पूरा अधिकार है
सम्राट हूं जनता का
मंगता नहीं,
मंगतों की तो देश में
पहले ही भरमार है ।
आजादी हूं देश की
नहीं आई थी जब तक,
प्रेमिका बन
मैंने तड़पाया है
प्रेमियों को शहीद या
संत बनाया है
बेवफ़ा-सी बेरुखी पर
उतर आई
की मुखबरी या बेवफाई –
स्वप्न था बनने का
दीप हर आंगन का
महलों ने बोल धावा
बनाया मुझको बिकाऊ
बंधुआ मजूरी-सा
बांधा शिकंजे में
बना दिया अंकशायिनी
मुझे वैभव विलास की
जो चोरी से आता है
पंचतारा होटलों में
चमकता, गाता है
मखमली गद्दों पर
कुत्तों -सा सुहाता है।
कंगाली में आटा गीला
क्यों चलूं उसके साथ
क्यों बनूं मैं कृष्ण
जिसका सुदामा से नाता है
देता है किंग लियर साम्राज्य
भ्रष्ट चाटुकार गौनरिल को
और भोली कार्डीलिया को
सीता -सा बनवास
भरत -सा नहीं
कोई भाई
जो राम को बन से लौटा लाए
या राम की खड़ाऊ रख
झोपड़ी से देश चलाए।
पागल थोड़ी देर
चुप हो सत्ता-सी
मुद्रा बनाता है
आने जाने वालों को
सिपाही- सा धमकाता है
कि देखते नहीं हो
मेरे हाथ में बंदूक
और कमर में
कारतूसों की माला
मेरी नौकरी का मकसद
यही है साला
लोकतंत्र बचाऊं
चलाओ गोली
जनता पर
पर आख़िरी गोली से
भून डालूंगा
अपना कलेजा -अपना दिल
धांय धांय का स्वर निकाल
गिर जाता है सड़क पर
मर जाने की मुद्रा बनाता है –
फिर धीरे-धीरे स्वयं को
उठाता है
और स्वयं ही मातमी धुन
निकालता है और हा-हा-हा
हंसता और गाता है ।
दफ्तरों के सामने
भरी बसें
खड़ी जाने को तैयार
वह दौड़ता है इधर से
उधर और उधर से इधर
प्रवचन की मुद्रा में
करता है संबोधन ,
‘भाइयों ! सच-सच बोलो
आज कितनों ने कितनों को
सताया,
कितनों ने कितनों की
टांग खींची
कितनों ने कितनों को रुलाया,
अगर तुम सरकारी हो
तो बोलो कितने भ्रष्टाचारी हो
कितनों के घर पहुंची कमीशन
कितनों ने गद्दारी में रिकॉर्ड बनाया
जोड़-तोड़ और चापलूसी से
कितनों ने कर्मवीर का
खिताब पाया
बोलो… बोलो…. सच बोलो
सच के सिवा कुछ नहीं बोलो
कोर्ट है ,कुछ भी बोलो
फर्क नहीं पड़ेगा, जज सोया है
कचहरी भरी भी खाली है
न्याय वही होगा
जहां नोटों का पलड़ा भारी है
कोर्ट कचहरी पराई नहीं
हमारी है – हमारी है
इंदिरा गांधी मौत की नहीं
हमारी है – हमारी है
और वह फूट-फूट कर
रो पड़ता है –
साले ,मां को मार
कर दिया कौम को
बदनाम –
कैसे छूटेगा लहू
यह मेरे तुम्हारे हाथों से
तुम्हारे नाम-
दुनिया के सारे सेंट मिलकर भी नहीं
धो सकते यह धब्बे
कहती है लेडी मैकबेथ
और धोती है
हाथों को बार-बार
क्राइस्ट, कर दो हमें माफ
नहीं जानते हम
कि क्या कर रहे हैं हम …
इंसान की फितरत है
खाता है जिस थाली में
करता है उसी में छेद
धर्म की पुड़िया
हर रही संज्ञा विवेक
कौन- सा शहर यह
कौन -सा गांव
देश की पहचान हुई
कर्फ्यूस्थान ।
ओ चाचा नेहरु, बापू गांधी
खत्म क्यों होती नहीं
हिंसा की आंधी
इंसानी रुधिर वाहिकायों से
बह रहा निरंतर खून
चारो तरफ फैला
यह कैसा जुनून –
लैंड वार… वार लैंड ……
वेस्टलैंड.…..वेस्ट लैंड
दे दी हमें आजादी
बिना बरछी बिना ढाल
साबरमती के संत
तूने कर दिया कमाल
फूट फूट कर रो रहे
अपने अपनों की लाशों पर
जगत ,जसौंधा
और जमाल .…
भारत माता की जय
जय …जय .…. जय 1
एक दिन
पुलिस जबरन ले गई
उसे हस्पताल
सुना है अब
वह हो गया है
स्वस्थ
नहीं बकता अनाप-शनाप
लगा लिया है उसने
अपने मुंह को ताला
छेड़ रहे थे बस में शौहदे
एक लड़की को
जो र्थी उसकी बेटी की उम्र की
उसने आंखें बंद कर ली
और सीट पर टेक लगाकर सो गया
सड़क पार कर रहा था
एक ट्रक साइकिल सवार को रौंद
हो गया फ़रार
नहीं देखा उसने
रक्त के फव्वारे को
इत्मीनान से सड़क पार की
और दूसरी बस ले ली ।
दफ्तर में बॉस उसे डांटता है
बिना बात
बैठा रहता सिर झुकाए
जैसे सूंघ गया हो सांप
आफिस में आता है
कोई असामी
और हो हरे नोट की संभावना
वह अतिरिक्त चुस्त हो जाता है
असामियों को चुटकियों में
निपटाता है
सुना है आजकल
वह स्वस्थ हो गया है।