पागल कौन?
पागल कौन?
एक वो पगली
घूमती सड़क पर
पत्थरों से खेलती
पत्थरों को झेलती
विक्षिप्त मन
उघड़ा तन-बदन
चिंदी-चिंदी, चिथड़ा चीर,
चीथड़ों की जंजीर
उलझी फाँस सी जूड़े।
हा!तन पे वस्त्र न पूरे।
एक वो आधुनिका
सम्पन्न, संभ्रांत, सबरंग
कपड़े, कटे-फटे और तंग
सुंदर साज, सृंगार
घूमती भरे बाजार
चटक चटकारे
वसन धारे,
आधे-अधूरे।
एक वो घृष्ट,
कुछ आधुनिक अशिष्ट
निगाहें मुड़-मुड़ घूरे
कपड़े छोटी या सोच?
पागल कौन ये सोच?
-©नवल किशोर सिंह