पांडवों की युवावस्था/किशोरावस्था!!
कौरव, पांडवों की शिक्षा दिक्षा पुरी हो गई,
इधर हस्तिनापुर को युवराज देने की तैयारी चल रही।
युवराज के पद के लिए दावेदार हैं यह दो,
युधिष्ठिर और दुर्योधन में से कौन युवराज हो।
इस समस्या से सब परेशान हैं,
ढुंड रहे समाधान हैं।
विदुर महामंत्री हैं,
हस्तिनापुर में,
वह यह सुझाते हैं,
एक न्याय होना है,
एक न्याय होना है,
आज दरबार में,
क्यों न इसका निर्णय,
इन दोनों,पर छोड़ दो,
कौन न्याय कर पाता है,
इसको देख लो,
जिसका भी न्याय,
न्याय संगत होगा,
वहीं युवराज का ,
सही पात्र होगा ।
इस पर सहमति बन गई थी,
पहले दुर्योधन को यह अवसर मिला था,
उसने अभियोगियों से,
उनके कृत्रिम का विवरण जाना,
और उनके अपराध पर,
निर्णय सुनाया।
शकुनि, धृतराष्ट्र सहित अन्य सभी को ,
दुर्योधन के निर्णय में,
कोई दोष नहीं दिखाई दिया,
और उन्होंने,
दुर्योधन के पक्ष में अपना मत प्रकट किया।
अब युधिष्ठिर को बुलाया गया,
और उसको भी अपने निर्णय पर
सोचने को कहा गया,
उसने सभी अभियुक्तों को,
वहां पर बुलाया,
और उनसे,
उनके सामाजिक वर्ग का ज्ञान लिया,
सभी अभियुक्तों के बारे में जाना,
तब फिर अपना निर्णय सुनाया,
यद्यपि, उनके सामाजिक परिवेश पर,
कुछ लोगों ने आपत्ति जताई थी,
अब निर्णय सुनाते हुए,
युधिष्ठिर ने उसकी वजह बताई थी,
उसने उनके सामाजिक परिवेश को,
आधार मानकर निर्णय सुनाया,
और इस प्रकार,
बुद्धि कौशल से अपना मान बढ़ाया।
बस यही एक कारण,
उनको युवराज बना गया,
भले ही, ज्येष्ठ होने पर भी उन्हें ही यह पद मिल जाना था,
लेकिन धृतराष्ट्र के ज्येष्ठ पुत्र को भी,
इस पद का दावेदार घोषित किया गया था।
चुंकि, धृतराष्ट्र वर्तमान में राजा पद पाए थे,
और इसी कारण दुर्योधन को भी युवराज बनाने के विचार आए थे,
अब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया था,
लेकिन, धृतराष्ट्र के साथ, शकुनि, और दुर्योधन को,
यह निर्णय स्वीकार नहीं था,
धृतराष्ट्र ने तो खुलकर विरोध नहीं जताया,
लेकिन, अपने पुत्र को युवराज न बन पाने पर अफसोस जताया।
शकुनि ने दुर्योधन को यह समझाया,
युधिष्ठिर को राजा के स्थान पर,
एक समारोह में भिजवाने के लिए धृतराष्ट्र से कहलवाया,
शकुनि ने वहां पर एक षंडयत्र रचा था,
लाक्षागृह का निर्माण किया था,
इसमें युधिष्ठिर को जला कर मारने का षंडयत्र किया था।
इस तरह के षंडयंत्र का आभास,
विदुर को हो रहा था,
विदुर ने इसका इजहार, युधिष्ठिर से किया,
एक पहेली के साथ, उसे बुझाने को कहा,
विदुर ने पूछा यह बताओ,
यदि जंगल में आग लग जाए तो,
उसमें कौन प्राणी बचेगा।
युधिष्ठिर ने तब सोच विचार कर,
यह बताया,चुहा इस संकट में बच पाएंगे,
युधिष्ठिर तो उस यात्रा पर निकल पड़े,
और लाक्षागृह में पंहुच गये।
इधर विदुर ने अपने एक दूत को भेजा,
और उसको सुंरग बनाने को कहा था,
इस बात का संकेत युधिष्ठिर को दे दिया था।
निर्धारित समय पर,
पांडव वहां से निकल गये,
उधर उनके स्थान पर वह जलकर मर गए,
जिन्होंने इसका निर्माण किया था,
लाक्षागृह ने पांडवों को झकझोर दिया था,
और उन्होंने वापस नहीं जाने का निर्णय लिया था।
इस तरह वह वन,वन घुम रहे थे,
वनों में रह कर, वह दीन दुखियों की मदद कर रहे थे।