पांच कविताएँ
कवि और कलम
बारूद के ढेर पर बैठी दुनिया समझा कवि |
नफरतें सब धुल जाएँ प्रेमगीत सुना कवि ||
जंग की तैयारी में बन रहे हथियार नये नये |
जग से हथियार छुड़ा ,सौहार्द पकड़ा कवि ||
क्यूँ अधीर हुए बैठी है युद्ध के लिए दुनिया |
दास्तां बर्बादियों की इसको सुना कवि ||
मानवता दिलो दिमाग में इनके भर इस तरह |
झगड़े मन्दिर मस्जिद के सारे मिटा कवि ||
यह दुनिया खूबसूरत थी और यह खूबसूरत है |
कांटे नफरतों के चुन फूल प्रेम के उगा कवि ||
सच स्वार्थ का दुनिया को बताना फर्ज तेरा |
फसलें मुहब्बतों की इन्हें उगाना सिखा कवि ||
उजाला ही उजाला हो जाये सरहदों के दरमियां |
दीये ऐसे लफ्जों के अब तू जला कवि ||
लू आतंक की झुलसाने लगी है धरती को |
बनकर घनश्याम तू आतंक पे छा कवि ||
हाथ की लकीरों से मुक्कद्दर नहीं बनता |
मन्त्र मेहनत का इनको तू बता कवि ||
कोई हक छीने नहीं मजलूम का बाँटनेवाला |
कोई करे ऐसा तो जमाने को उकसा कवि ||
पहले बना तू दुनिया को जन्नत जैसी |
बेशक फिर रोज तू उत्सव मना कवि ||
कलम तलवार है तेरी मुंसिफ तू जमाने का|
मजलूम लाचारों को हक उनका दिला कवि ||
सृजन सुख
जब मैं कविता में खोया होता हूँ
तो नीला आसमान रंगों से भर उठता है
हवा में महक आने लगती है
मैं मदहोश हो जाता हूँ
सामने फुदकती चिड़ियाँ
मेरे भीतर
संगीत भर देती हैं
मेरी लेखनी से निकले शब्द
तन्मय होकर नाचने लगते हैं
तब मैं स्वयम
नया आदमी हो जाता हूँ
और मैं
अपने आस पास भी
नया आदमी बना रहा होता हूँ
स्वर्णिम भविष्य
वर्तमान की ओट से झांककर
मुझे आश्वस्त करते हुए
आशीष देता है ||
दोस्त
दोस्त जीवन में जैसे चिराग होते हैं |
ठंडी रातों में जैसे गर्म आग होते हैं ||
बिना दोस्त जीवन लगे सूना – सूना |
दोस्त सुहागिन का जैसे सुहाग होते हैं ||
नीरस रंगहीन जीवन की पगडंडियों पर |
दोस्त रंगीन खिलखिलाता फाग होते हैं ||
जीवन का रूप रंग खुशबू सब इनसे |
दोस्त फूलों में जैसे पराग होते हैं ||
इन्हें परखिये मत बस प्यार कीजिये |
दोस्त जीवन का उजला विहाग होते हैं ||
बिना इनके जीवन बेसुर सा लगे दर्द |
दोस्त जीवन का सुर-लय-राग होते हैं ||
एक मसीहा पाला है
हमने अपने अंतर्मन में एक मसीहा पाला है |
जब-जब हद से दर्द बढ़ा तो उसने हमें सम्भाला है ||
कठिन राह में जब-जब भी अंधेरों ने हुंकार भरी |
आकर तब खुद उसने हमको बांटा खूब उजाला है ||
दुनिया के हैं रंग दोगले उसने यह समझाया है |
बाहर है जो जितना उजला अंदर उतना काला है ||
अपनी सारी चिंताओं को उसको सौंप के देखा तो |
उसने ही फिर प्यास बुझाई उसने दिया निवाला है ||
जब-जब भ्रमित हुए तो उसने आकर कान में दोहराया |
मस्जिद भी है तेरे भीतर , भीतर तेरे शिवाला है ||
अपनी कश्ती लगी डूबने जाकर जब मंझधारों में |
तब-तब मांझी बन कर उसने भंवर से हमें निकाला है ||
बधिक जमाने वालों ने जाल में हमें फंसाया तो |
उसने ही तरकीब बताई काटा उसी ने जाला है ||
राह कंटीली से विचलित हो विश्वास हमारा डोला तो |
तब-तब बंद मुकद्दर का उसने खोला ताला है ||
जीवन जीने का उसने ही मन्त्र दर्द सिखाया है |
कदम – कदम पे चमत्कार का करतब देखा भाला है ||
किताबों की छाँव में …
किताबों की छाँव में बैठा तो
अंदर का सारा छल निकल गया
मेरे सारे भ्रम विदा हो गये
जीने का मकसद बदल गया
छल – कपट के पाले हुए
सारे प्रपंच स्वतः मर गये
मेरे अन्तस् से निकले शब्द
अजर – अमर हो गये
शब्दों के उजास ने
मेरा जीवन सहला दिया
मेरे भीतर – बाहर
प्रकाश ही प्रकाश फैला दिया
अब में रास्ते और शार्टकट का
यथार्थ जानता हूँ
अब में सत और असत का
स्वरूप पहचानता हूँ
अब मुझे अज्ञान का अँधेरा
नहीं डरा पाता
कोई अस्त का भ्रम मुझे
रास्ते से नहीं भटकाता
अब मैं शब्दानंद – अनुभूति का
अमृत पीता हूँ
निर्भय होकर हमेशा
किताबों की छाँव में जीता हूँ ||