पाँव में छाले पड़े हैं….
पाँव में छाले पड़े हैं …
वेदना में जल रही हूँ, आँसुओं में गल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
ओ नियंता दर्द मेरा, देख तू भी इक बारगी।
फर्क मुझ पर क्या पड़े अब, रोशनी हो या तीरगी।
हाथ में गम की लकीरें, साथ तम के पल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
कौन जाने कब मुझे हो, इस जहां को छोड़ जाना।
कौन जाने किस सुबह फिर, हो यहाँ पर लौट आना।
दिवस का अवसान होता, रात में अब ढल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
शिकवा न कोई मैं करूँ, रुचे जो जिनको वो करें।
मार्ग फिर भी रोक लेतीं, हा हर कदम पर ठोकरें।
आस मंजिल की लगाए, नित स्वयं को छल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
देता न कोई साथ है, आज समझ ये पायी हूँ ।
पास कुछ न और बाकी, भाव-सुमन बस लायी हूँ।
कल मुझे जो मीत कहते, आज उनको खल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
खुशी के रेले मिलेंगे, ख्वाब देखे थे नज़र ने।
मर्म जीवन का सुझाया, नत खड़े गुमसुम शज़र ने।
लुट गया रोशन जहां अब, हाथ खाली मल रही हूँ।
पाँव में छाले पड़े हैं, पर निरंतर चल रही हूँ।
पर निरंतर चल रही हूँ।
© डॉ0 सीमा अग्रवाल
जिगर कॉलोनी, मुरादाबाद
“प्रभांजलि” से