पाँव फिर से जी उठे हैं
जब मिलीं दो युगल आँखें
अधर पर मुस्कान धर के।
गा उठे टूटे हृदय के
भ्रमर मधुरिम तान भर के।
सर झुकाकर दासता
स्वीकार की अधिपत्य ने।
गर्मजोशी जब परोसी
अतिथि को आतिथ्य ने।
यूँ लगा रूखे शहर में
गाँव फिर से जी उठे हैं।
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किंशुकों की कल्पना में
कंटकों से घिर चुके थे।
पत्थरों की ठोकरों से
लड़खड़ाकर गिर चुके थे।
फूल जब चुभने लगे थे घाव
डरने से लगे थे।
फिर सफर के प्रबल आशा भाव
मरने से लगे थे।
तुम बने अवलम्ब जब से
पाँव फिर से जी उठे हैं।
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लब्धि का प्रारब्ध के संग
द्वन्द्व जब पर्याप्त देखा।
एक मरुथल मित्रता के
चक्षुओं में व्याप्त देखा।
मरुथलों के ढेर दिखते
रहे हर सम्बन्ध में।
तब कहीं तुम आ मिले
सम्बन्ध के अनुबंध में।
मरुथलों में आश्रयों के
ठांव फिर से जी उठे हैं।।
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प्रीत पर सर्वस्व बरबस
वार बैठे हैं।
प्रीत की नव रीत पर हिय
हार बैठे हैं।
हारकर हिय प्रिय स्वजन की
जीत यों साकार की है।
जीत कर भी प्रीत हित में
हार भी स्वीकार की है।
हार में भी जीत वाले
दाँव फिर से जी उठे हैं।।
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एक था मझधार का डर
दूसरा जर्जर शिकारा।
थीं थपेड़ेदार लहरें
दूर लगता था किनारा।
शून्य होती चेतना को
यूँ लगा तुमने पुकारा।
डूबते को मिल गया ज्यों
एक तिनके का सहारा।
अनगिनत जलपोत कश्ती
नाव फिर से जी उठे हैं।।
-संजय नारायण