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6 Jul 2021 · 36 min read

पाँच कहानियां

(1)
कहानी
अलगाव
पत्र विधा

प्रिय,
ये कहानी शुरू हुई थी तुमसे पर हर एक आम कहानी की तरह मैं इसे यूँ ही खत्म नहीं होने दूँगी।आख़िर पत्नी हूँ तुम्हारी,अभी हक़ बनता है मेरा तुम पर।आज मन हुआ तुम्हें ख़त लिखूँ, पन्नों पर उड़ेल दूँ,खाली कर दूँ खुद को पूरी तरह..खैर खाली तो बहुत पहले हो चुकी हूँ, अभी भी कुछ जज्बात हैं जो चिपके हुए हैं रूह से,सोच रही हूँ आज उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दूँ ! ख़त कौन लिखता है आज के डिजिटल जमाने में.. किसे फुर्सत है कि बैठ कर अक्षर अक्षर मोती पिरोकर माला बनाई जाए,वो भी इस दौर में जहाँ हर चीज़ रेडीमेड मिलती है।मेरी अजीबोगरीब आदतों की तरह इसे भी मेरी एक सनक मानकर पढ़ लेना..फुर्सत निकालकर..न न जबरदस्ती बिल्कुल नहीं है फिर भी आख़िरी निशानी मानकर सरसरी नज़र दौड़ा लेना।मुझे अच्छा लगेगा।
मैं ख़त के जरिये तुम्हें पुरानी यादों के घने जंगल में ले जाकर छोड़ने वाली नहीं हूँ,वैसे भी वो जंगल आज आखिरी सांस ले रहा है ! वो पेड़ जो हमने बड़े यत्न से साथ साथ लगाए थे,सूखकर ठूँठ हो चुके हैं।अपराजिता के नीले फूल अब खिलना भूल गए हैं..तुम्हारी धूप जो नहीं आती अब !
जंगल छोड़ो..आजकल बालकनी में मन बहलाती हूँ।तुम्हारी लगाई मनी प्लांट को सींचती रहती हूँ।बड़ी ही जिद्दी किस्म की बेल है,कहीं भी उग आती है..इसे न तो जरूरत है धूप की और न ही दालान भर मिट्टी की।ये खुश है मेरी तरह एक छोटी सी पानी की बोतल में।हरियाली का अहसास कराती है।मेरी बालकनी भर दुनिया में कुछ बोनसाई पौधे भी हैं।कभी सोचा नहीं था कि भरे पूरे पेड़ों को चाहने वाली ये लड़की बोनसाई से अपना मन बहलायेगी..! किसने सोचा था कि उसे मनचाहा आकार देने के लिए जड़ों पर कैंची चलानी होगी..पर मैं कर रही हूँ इन दिनों..! मेरी बालकनी में आ जाती है सुबह शाम तुम्हारी यादों की मुट्ठी भर धूप..बोनसाई को और क्या चाहिए ! खैर मैं भी कहाँ पेड़ पौधों की बातें करने लगी..तुम्हें तो पसंद ही नहीं थे ये सब।
तुम्हें दिलचस्पी तो नहीं होगी मेरी खुशी या नाखुशी जानने में ! फिर भी बता देती हूँ..खुश हूँ मैं आजकल.. रंगों के साथ अच्छी बनती है मेरी।मैं तो लगभग भूल ही गई थी कि रंग कभी जिंदगी हुआ करते थे मेरी।चटख रंगों से प्रेम था मुझे..मुझे लगता था हर रंग सच्चा है..जो जैसा दिखता है सचमुच अच्छा है ! खैर अनुभव नें सिखाया, रंगों के भी अपने चेहरे हैं..तासीर है..मिज़ाज हैं।हर खूबसूरत रंग किन्हीं दो अलग रंगों का सम्मिश्रण है..नजरें चाहिए होती हैं उन्हें सही से पहचानने के लिए।अनुभव नें ही सिखाया कि रंग यूँ ही नहीं उभरकर आते,पृष्ठभूमि का गहरा होना अत्यंत आवश्यक है ! मेरे रंग भी बैकग्राउंड के गहरा होने की प्रतीक्षा में थे शायद..अभी अच्छी तरह उभरकर आ रहे हैं।शुक्रिया इसमें तुम्हारा योगदान अतुलनीय है।
मिनिएचर पेंटिंग में सिद्धहस्त होना एक दिन का कार्य नहीं।एक लघु संसार बुनना होता है अपने इर्द गिर्द।उस लघु चित्र की तरह बेहद लघु होकर ढालना होता है खुद को..रंगों को.. एक एक कर।मेरा इरादा कभी नहीं था कि अपनी अभिरुचि को आय का साधन बनाऊं लेकिन कर रही हूँ.. इसने रोजी रोटी दी,पहचान दी..जीने का संबल दिया।आजकल समय का अभाव नहीं है..तुम जो नहीं हो।तुम थे तो दुनिया तुम तक ही सीमित थी..अपनी अभिरुचियों को विवाह के अग्नि कुंड में ही प्रवाहित कर चुकी थी।मेरे लिए बस तुम थे..मेरा जीवन..मेरा ध्येय..मेरा विस्तार.. बस तुम्हारे आगे पीछे..दाएं बाएं हर समय तुम्हे खुश देखने का प्रयास करती थी..इतना कि चिढ़ जाते थे तुम मुझसे ! ज्यामिति के डायमीटर की तरह मेरी परिधि कितनी भी दूर तक जाए एक पैर तुम्हारे केंद्र में ही होता था। ये बात अलग है कि अब तुमने डायमीटर को ही विभाजित करने का फैसला लिया है ! फिर भी मेरी आत्मिक धुरी का केंद्र बिंदु आज भी तुम ही हो।
तुम्हारी इच्छा के मुताबिक हमें अलग रहते हुए छह माह से ऊपर हो गए हैं।मैं पहले भी तुम्हारे रास्ते में नहीं आती थी और न ही कभी आगे आऊँगी।तुम अपना लगभग सारा सामान लेकर जा चुके हो।कुछ बचा तो मैं भिजवा दूँगी।एक दीवार घड़ी है जो हमनें साथ में खरीदी थी..जो ठीक शाम के छह बजते ही मुस्कुराया करती थी ! शायद तुम ले जाना भूल गए।याद है उसमें दो नन्हीं चिड़िया निकल कर आती थी हर घंटे पर चौकीदार सी..हमने सपनें बुनना शुरू कर दिया था घर में फुदकती दो नन्हीं चिड़िया का..! तुम बताना मुझे उसे लेकर जाना चाहते हो या नहीं..! मेरा समय तो कब का ठहर चुका है ! कमबख्त ये घड़ी भागी जाती है..बचे खुचे अहसास स्मरण कराने को !
आजकल मैं भी तीखा मसालेदार खाने लगी हूँ।तुम्हें यकीन नहीं हो रहा न..वो जो जरा सी मिर्च लगने पर पूरा घर सर पर उठा लेती थी आज मसालों की बात कर रही है ! मेरे व्यक्तित्व की तरह मैं भी बेहद सादा थी,मुझे अहसास भी नहीं था कि खिचड़ी भले ही स्वास्थ्यकर हो मगर रोज रोज खाएंगे तो बोरियत ही होगी न ! तुम ठहरे बिरयानी वाले..अजीब सा संगम था फिर भी मैं तुम्हारी खातिर सीख ही गई थी मजेदार बिरयानी बनाना भी,ये बात अलग है आज खाने भी लगी हूँ।जमाने जैसी होने लगी हूँ.. तुम पहचान नहीं पाओगे मुझे ! खैर, तासीर आज भी मेरी सादा है,मैं चाहकर भी तुम्हारी मिस स्वीटी जैसी चटपटी नहीं हो सकती !
उस रोज शायद अंतिम बातचीत के लिए तुमने फोन किया था।बातचीत तो अरसे से बंद थी अब तो सिर्फ उसके औपचारिक अवशेष बचे थे उन्हीं की इतिश्री के लिए तुमने बात करनी चाही मुझसे..मगर हे ईश्वर ! कोई है जो नहीं चाहता कि हमारे बीच पूर्णतः सब कुछ विखंडित हो जाये,शायद इसीलिए उस रोज तुम्हारी आवाज़ के हल्के से कंपन में भी तुम्हारी तबियत के बारे में जान चुकी थी।तुम्हारे हाथ से फोन छूटते ही मेरे हृदय की धड़कनें भागने लगी..कुछ गिरने की आवाज आई।मैंने कुछ नहीं सोचा बस तुम्हारे पास आने का खयाल आया।शुक्र है आज तक भी हमारे फ्लैट की एक चाभी मेरे पास भी है।तुम बेसुध पड़े थे जमीन पर..पास ही तुम्हारा फोन बज रहा था बार बार..मिस स्वीटी की कॉल थी।उठाना नहीं चाहती थी मगर उठा लिया..उसे बताया तुम्हारे बारे में..अब वही तो है जो मेरे बाद तुम्हारा खयाल रखती है !
तुम्हारी स्थिति बिगड़ रही थी।चार दिन लगातार एडमिट रहने के बाद मैंने फैसला किया कि अपनी एक किडनी तुम्हें दे दूँ..यही एक रास्ता बचा था..खैर मुझे कोई परेशानी नहीं..कम से कम तसल्ली रहेगी कि मेरा कुछ तो है जो जिंदगी भर तुम्हारे साथ रहेगा..!मैंने कहा था न कोई है जो नहीं चाहता कि हम पूर्णतः विखंडित हो जायें ! मेरे कहने का मतलब फिर से एक होने का नहीं है..बिल्कुल चिंता मत करो..मैं फिर से तुम्हारी जिंदगी में वापस जबरदस्ती घुसने का कोई इरादा नहीं रखती।मैं सचमुच अब खुश हूँ अपनी लघु दुनिया में.. कई बार हम ईश्वर के संकेत समझ नहीं पाते और जो कुछ भी गलत घट रहा होता है उसके लिए बेवजह उसे जिम्मेदार ठहरा देते हैं जबकि हक़ीकत इससे बिल्कुल परे है..! ईश्वर हर हाल में हमारा शुभ ही चाहता है..उसी ईश्वर नें मुझे राह दिखायी..मेरे अंदर छिपे कलाकार को बाहर लेकर आया।मुझे आत्मनिर्भर होना सिखाया।मैं सचमुच बेहद शुक्रगुजार हूँ उस ईश्वर के साथ साथ तुम्हारी भी..! मैंने कोई अहसान नहीं किया तुमपर..बल्कि ये अहसान मेरा मुझपर है..इस बहाने तुमसे मेरा आत्मिक संबंध प्रगाढ़ ही होगा भले ही इकतरफा हो ! तुमसे मेरा सात फेरों का संबंध है,इतनी आसानी से पीछा छूटने वाला नहीं..कागज के चार टुकड़े और एक हस्ताक्षर क्या सचमुच अलगाव के लिए काफी हैं ? शरीर तो माध्यम भर था आत्मिक जुड़ाव का..उसकी परवाह तो न मुझे कल थी और न कभी रहेगी।लेकिन हाँ, विभाजित हुआ डायमीटर पुनः उसी अवस्था में पहले की तरह जोड़ पाना मेरे लिए असंभव होगा..! ये बात भी सच है कि आज भी मेरी धुरी तुम ही हो.. बस मैंने अपना विस्तार परिधि से कहीं आगे कर लिया है। कभी किसी मोड़ पर अगर जरूरत महसूस हो तो हृदय से आवाज देना मैं चली आऊँगी।
मिस स्वीटी को फोन करने का कई बार प्रयास किया मगर हर बार उनका नम्बर बंद बता रहा है।सोचा इत्तला कर दूँ कि तुम अब ठीक हो..सुरक्षित हो..खैर कोई बात नहीं..!
खयाल रखना अपना।
अलविदा !

स्वरचित
अल्पना नागर

(2)
कहानी
दीवार का टूटना

कितनी कोशिश करते हैं ये लोग कि रोक सकें धूप को अंदर आने से..इन्हें पसंद नहीं अपनी मर्जी के बगैर किसी का भी प्रवेश,फिर वो चाहे धूप ही क्यों न हो! भाई सुबह से लगा हुआ है बालकनी में चिक सैट करने की मगर जिद्दी धूप..वो रास्ता निकाल ही लेती है,चिक से झाँकती धूप किसी छोटे बच्चे सी मासूम लग रही थी।भाई नें एक पर्दा और डाल दिया।उसे अंधेरे से बेहद प्यार और उजाले से सख्त नफरत थी।अंतिम प्रयास धूप से लड़ने का..
इस बार धूप पर्दे के आरपार से झरती सुनहरी गोटे सी झिलमिल बेहद आकर्षक लग रही थी।उसे आना ही था,कौन रोक सकता है भला धूप और खुले विचारों को !
दरवाजे पर खड़ी वो बहुत देर से ये उपक्रम देख रही थी।धूप और भाई की आपसी लड़ाई को देख हँसी का फव्वारा छूट पड़ा ठीक वैसे ही जैसे धूप बिखर गई थी पूरी बालकनी में रेशा रेशा उजास सी।
“अदब से रहना सीख जा..अगले महीने निकाह है तेरा।”चिक ठीक करते हुए भाई नें कहा।”तुझे अम्मी नें सर चढ़ा रखा है वरना बता देता..”।
“उस बुड्ढे से निकाह कर जहन्नुम नहीं जाना मुझे,सिर्फ सोलह की ही तो हुई हूँ अभी।”इमली के बीज मुँह से निकाल पैरों तले कुचलते हुए उसने कहा।
बालकनी से दो आँखें घूरती हुई नजर आयी जैसे कि अभी बाहर निकल कर टुकड़े टुकड़े कर देंगी वजूद को।
वो किसी नई उलझन से बचने के लिए वहाँ से निकल गई।
प्रकृति नें स्त्री और पुरुष को थोड़ा अलग बनाया है।किंतु बड़ी ही कुशलता से दोनों का एक दूजे के अस्तित्व संग समावेश भी किया है।हर स्त्री में मौजूद पुरुष और हर पुरुष में मौजूद स्त्री जब मिलकर साझीदारी से दुनियादारी का जिम्मा उठाते हैं तब खूबसूरत सी चीजें निकल कर आती हैं।प्रेम की पराकाष्ठा और मधुर संवेदनायें इन्हीं दोनों के सम्मिश्रण का प्रतिफल हैं।लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब एक पुरुष का दम्भ अपने अंदर साँस ले रही संवेदनशील स्त्री का बेरहमी से क़त्ल कर देता है या फिर कोई स्त्री अपने अंदर मौजूद पुरुषोचित गुणों को संस्कारों के भारी पत्थर तले कुचल देती है और मजबूर हो जाती है बेजान जिस्म के साथ बिना रूह का जीवन जीने को।
अपनी फ़टी किताबों के चिथड़े सीलते हुए उसके हाथ काँप रहे थे।वो दरअसल अपनी उधड़ी हुई आत्मा के बिखरे हुए अंशों को जोड़ने का निरर्थक प्रयास कर रही थी।सुई मोटी थी लेकिन फिर भी आँखों में छाई ओस की बूँदों से धुँधली नजर आ रही थी।बेरहमी से टुकड़े टुकड़े हुआ वजूद किताबों की तरह चीत्कार मार के सवाल पूछ रहा था मगर आवाज किसी तहखाने में बंद हो गई।वो दरवाजा खटखटाती रही मगर बाहर नहीं निकल पाई।आवाजें अंदर ही अंदर समंदर की तरह शोर मचाती रही।वो मन के किनारे पर वजूद की भुरभुरी रेत में पाँव डुबाये देर तक बैठी रही।लेकिन रेत जैसे पांवों को निगलना चाह रही थी।वो लाख कोशिश करने पर भी अपने जड़ पांवों को हिला नहीं पा रही थी।आवाजों के समंदर से बहुत कुछ पूछना चाहती थी मगर कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला सिवाय जिस्म पर चिपके नमक के।वो दूर बैठी थी समंदर से..इतनी दूर कि शोर परेशान न कर सके मगर फिर भी समंदर नें अपना असर छोड़ ही दिया।वो अपने जिस्म पर नमक लेकर लौटी।मगर कमाल ! ये नमक..उसकी आत्मा पर लगे गहरे घावों पर मरहम का काम कर रहा था।
वो बार बार किसी अटकी हुई घड़ी की सुई की तरह उन शब्दों पर अटक जाती जो अंतिम बार उसने कहे थे और सुने थे।घड़ी की अटकी सुई की तरह उसका समय आगे बढ़ने से इनकार कर रहा था।सब कुछ रुक गया था सिवाय उन अटकी हुई सुइयों की टिक टिक के जो दिल दिमाग में किसी बेसुरे अलार्म की तरह जब तब बजती रहती थी।
“सुनो,तुम्हारा भाई मिलना चाहता है मुझसे..” फोन के दूसरी ओर एक विनत आवाज नें कहा।
“भाई मिलना चाहता है..पर क्यों ?”उसने चौंककर कहा।
“पता नहीं..शायद कोई जरूरी बात करनी है मिलकर..कई बार फोन आ गया।”
“क्या जरूरी बात..तुम रहने दो..जानते नहीं तुम मेरे भाई को..।”
“हम्म..पर आवाज से तो ऐसा नहीं लगा।बहुत प्यार से बात की उसने।”
“अच्छा !!”
“जाऊँ कि नहीं जाऊँ..!”
“देख लो,अगर जाना ही है तो पाँच मिनट होके आ जाओ।”
“तुम्हारे भाईजान हैं ..इज्जत करता हूँ।नहीं जाऊंगा तो शायद बुरा मान जाएंगे।”
“ठीक है पर तुम अकेले नहीं जाओगे,मैं भी साथ चलूंगी।”
उसके बाद एकसाथ कई हथौड़े।विश्वास के टुकड़े टुकड़े करते लहू से भीगे हथौड़े।दिल और दिमाग पर हर रोज चलते धड़ धड़ हथौड़े।धौंकनी सी असंयत तेज सांसे।हर सांस के नीचे पिटता वजूद का लाचार असहाय गर्म लोहा..रगों में दौड़ता हुआ आँखों तक उतरता गर्म लहू।
किसी तरह उसने खुद को समेटा।बहुत मुश्किल था एक एक हिस्से को समेटना।टुकड़े हुए वजूद का एक एक हिस्सा पुनः जुड़ना चाहता था।उसने सबसे पहले अपना धड़ उठाया,बेजान जिस्म पर खुद ही लगाया।दिल और दिमाग अपनी जगह आपस में बदल चुके थे।उसे कोई आपत्ति नहीं हुई।शायद ये बहुत पहले हो जाना चाहिए था।
आँखों में उमड़ी नदी को उसने इशारे से रोका।इस बार सुई साफ नजर आ रही थी।कटी हुई जुबान को धीरे धीरे सीलना शुरू किया।बेइंतहा दर्द मगर उतना नहीं जितना जोड़ न पाने की वजह से हर रोज होता था।
वो हर रात अपनी टूटी हुई रीढ़ को खूंटी पर टांग लेट जाती थी..खैर नींद किसे आनी थी पर ये रोज का क्रम था।रोज उसे अपनी टूटी हुई रीढ़ उतारकर टाँगनी होती थी।वो जानती थी ऐसा करके वो सिर्फ उस खूंटी का बोझ ही बढ़ा रही है।एक दिन खूंटी निकल आएगी बाहर उधड़ी हुई दीवार से बगावत करके।उस रोज कहाँ टांगने जाओगी अपनी टूटी हुई रीढ़..!
ये वही खूंटी है जिसपर उसकी अम्मी भी रोज अपना धड़ समेत सब कुछ टाँग देती है और शायद अम्मी की अम्मी भी इसी खूंटी पर पूरी जिंदगी टाँगती आयी थी।
आज उस खूंटी नें समूची दीवार ही गिरा दी।रेत की तरह भरभराकर गिरती हुई दीवार किसी स्वच्छंद झरने सी आकर्षक लग रही थी।न जाने कितनी कैद हुई आत्माएं उस जरा सी दीवार गिरने की घटना मात्र से आजाद हो चली थी।
अपने आप को समेटने के क्रम में उसने अंततः अपनी टूटी हुई रीढ़ भी उठा ली और बड़ी ही सावधानी से उसे अपनी पीठ पर चिपका दिया।
“तो वो तेरा भाई था..!”कोतवाल नें पूछा।
“जी..”।
“तू अपने ही भाई की रिपोर्ट कराने आयी है!”
“नहीं..एक कातिल की”।मजबूत आवाज में उसने कहा।
“वो जो मरा वो तेरा यार था या…”
“आप रिपोर्ट लिखिए बस..हम क्लासमेट थे।मदद करता था वो मेरी पढ़ाई में।”बीच में बात काटते हुए उसने कहा।
“ओह !”तिरछे ओठों से स्वर निकला।
“कोई सबूत..गवाह..?”
“मैं स्वयं गवाह हूँ।”
हथकड़ी में बंधे हाथ आज पहली बार नियंत्रण में थे।सामने की ओर विनत हाथ मगर आँखों में वही अंगारे…सबकुछ जलाकर भस्म कर देने वाले अंगारे।हथकड़ियों के सहारे एक पुरुष घर से बाहर धकेला जा रहा था।पीछे एक काला साया चला जा रहा था।ये वही अँधेरा था जिससे उस पुरुष को बेपनाह प्यार था।दोनों आज इस घर को अंतिम बार घूरकर देख रहे थे।उन दोनों के जाते ही घर में यकायक तेज उजाला फैल गया जैसे फूट गई हो वर्षों से कैद कोई काँच की बोतल।
उसने बालकनी में जबरन चिपकाई चिक को उतार फेंका।सामने सूरज मुस्कुरा रहा था जैसे कह रहा हो “मैं सिर्फ रात भर की दूरी तक तुमसे अलग हुआ हूँ।अगली सुबह फिर आऊँगा बेहतर उजाले के साथ बादलों को चीरता हुआ तुम्हारे वजूद के कण कण में समाने के लिए।तब तक मुस्कुरा दो..धूप की तरह।”
अरसे बाद वो मुस्कुराई।उसके अंदर कैद ऊष्मा का अजस्त्र झरना धूप की शक्ल में चारों ओर बिखर रहा था।

स्वरचित
अल्पना नागर

(3)
कहानी
एक थे चचा

इस शहर को देखता हूँ तो लगता है बहुत जल्दी में है,हर वक़्त भागमभाग..सांस लेने की भी फुर्सत नहीं..खैर,शहर कब से सांस लेने लगे! शहर का दम तो चींटी की तरह रेंगती गाड़ियों से हर वक़्त निकलने वाले धुँए नें ही निकाल दिया होगा।अब तो बेचारा हर शहर निष्प्राण जॉम्बी की तरह चलता फिरता दिखाई देता है जिसमें कोई भावना,आत्मा या संवेदना नहीं,सच ही तो है !शहर में कदम रखते ही दिल दिमाग सब पर शहरी धूल परत चढ़ जाती है,तभी तो सड़क पर चाहे कोई बेसुध होकर आखिरी सांस ले रहा हो,या फिर किसी बुजुर्ग को चाकू की नोक पर लूटा जा रहा हो,सब आँखों पर अदृश्य पट्टी बांधकर निकल जाते हैं,किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।
“क्या यार ये रोज का ट्रैफिक और रेंगती हुई जिंदगी!”मन ही मन कसमसाते हुए मैंने कहा।
ऐसे दमघोंटू माहौल में रोज एक बुजुर्ग को बड़ी ही तल्लीनता के साथ ट्रैफिक को नियंत्रित करते देखना किसी अजूबे से कम नहीं लगता।जी हां! इस रास्ते से होकर रोज़ गुजरता हूँ,इस भीड़भरे इलाके में सबसे ज़्यादा ट्रैफिक होता है विशेष रूप से सुबह के वक्त जब ऑफिस का समय होता है।ऐसे में ये बुज़ुर्ग महाशय एक भी दिन नागा किये बिना अपनी ड्यूटी निभाते हैं,सर्दी गर्मी बरसात कोई भी मौसम इन्हें अपना फ़र्ज़ निभाने से रोक नहीं पाता।इनके एक हाथ के इशारे से ही सारा ट्रैफिक नियंत्रित हो जाता है,रोज आने जाने वाले इन्हें जानने लगे हैं और पूरे अनुशासन के साथ नियमों की पालना करते हैं,सिर्फ अंजान लोग ही ट्रैफिक नियम तोड़ कर इन्हें अनदेखा कर निकल जाते हैं।सफ़ेद धुली हुई वर्दी,नाक पर चश्मा..सौम्य मुस्कान के साथ चेहरे पर बढ़ती उम्र की निशानियां अब साफ़ झलकने लगी हैं,लेकिन क्या मजाल माथे पर एक शिकन तक उभर आये!गले में एक सीटी के साथ पहचान पत्र उनके रोज़ के इस कार्य को वैध दर्जा देते हैं।देखने में तो वो बुजुर्ग सत्तर से ज्यादा के नजर आते हैं,इस हिसाब से तो इन्हें अब तक रिटायर हो जाना चाहिए था..फिर ये रोज़ वर्दी पहनकर क्यों आते हैं! पता नहीं ऐसे कितने सवाल लाल बत्ती होने पर जेहन में आते।ऐसी ही एक सुबह पुराने किसी मित्र के साथ ऑफिस जा रहा था तभी लाल बत्ती होने पर मित्र को वही बुजुर्ग नजर आये,गाड़ी का शीशा नीचे कर मित्र नें उन्हें आवाज लगाई..
“चचा, कैसे हो?सब खैरियत!”
“हां बेटा, सब बढ़िया,तुम बहुत दिन बाद दिखाई दिए।”
“बस चचा, शहर में ही दूसरे विभाग में तबादला हो गया है।अब मेरा रास्ता भी बदल गया है।आज तो किसी काम से गुजर रहा था सोचा आपकी ख़बर ही लेता चलूँ।”
“भगवान तुम्हें खूब बरकत दे,खुश रहो।”वही चिरपरिचित मुस्कान बुजुर्ग के चेहरे पर फ़ैल गई।
हरी बत्ती का इशारा हो चुका था।गाड़ियों का हुजूम फिर से अपनी अपनी राह निकल पड़ा था,पर मेरा मन वहीं रह गया था,बार बार उन बुज़ुर्ग का ख्याल और उनसे जुड़े कई सवाल दिमाग में आ रहे थे जिनका जवाब शायद मेरे मित्र के पास था।
“तू जानता है इन्हें?”
“हां,ये हरिलाल जी हैं,प्यार से लोग इन्हें चचा कहकर बुलाते हैं।”
” काफी मेहनती हैं,मैं रोज इन्हें देखता हूँ,उम्र के इस पड़ाव पर इतना काम करते देख थोड़ा बुरा जरूर लगता है..इनका परिवार नहीं है क्या!”
मेरे मन में उमड़ घुमड़ रहे सवालों को मेरा दोस्त पहचान गया था।
“हम्म,चचा हैं ही इतने प्यारे..कभी काम से जी नहीं चुराया तभी तो रिटायर होने के बाद भी यहाँ रोज अपना फर्ज निभाने आते हैं।”
“कैसा फ़र्ज! तू कुछ बताएगा भी?”
“बताता हूँ बाबा,सारी बात आज ही करेगा,किसी दिन घर पर बुला..बहुत दिन हुए तुझसे गुफ़्तगू किये।”
“अरे हां यार,तू आज शाम ही आजा घर..कल वैसे भी छुट्टी है।”
“तो ठीक है मिलते हैं शाम को।मेरी मंज़िल भी आ गई,यहीं उतार दे।”
मित्र के उतरने के बाद मुझे अपने उतावलेपन पर बहुत आश्चर्य हुआ,ये क्या होता जा रहा है मुझे..आखिर वो चचा मेरे क्या लगते हैं,मैं क्यों उनके बारे में जानने को मरा जा रहा हूँ…उनकी रोज की मुस्कराहट नें क्या मुझे खरीद लिया है! अज़ीब बात है यहाँ जान पहचान के लोग दिखाई पड़ने पर अंजान की तरह निकल जाते हैं जैसे कभी मिले ही नहीं और एक ये बुजुर्ग ‘चचा’ हैं जो हर परिस्थिति में सबसे मुस्कुरा कर मिलते हैं! कुछ तो बात थी उनमें ,मेरे लिए भी वो अजनबी ही थे,जाने पहचाने से अज़नबी! जिन्हें देखकर गाँव की चौपाल और बूढ़ा बरगद अनायास ही स्मरण हो आता है,पर किसी अनजान के प्रति इतनी जिज्ञासा और सहानुभूति,ये तो सरासर अन्याय है शहरी संस्कृति के विरुद्ध!
खैर,अब मित्र को न्यौता दे ही दिया तो ठीक है थोड़ी गपशप ही हो जायेगी।
घड़ी में शाम के छह बज रहे थे,मैं पांच बजे से ही ड्राइंग रूम के सोफ़े पर बैठा हुआ बार बार घड़ी की तरफ देख रहा था।पता नहीं कैसे श्रीमती जी को मेरे चेहरे पर लिखी हर बात पढ़ने में निपुणता हासिल थी।मैं फिर भी अपनी उद्विग्नता छिपाने के लिए मासिक पत्रिका पढ़ने का उपक्रम कर रहा था।
“पापा ये देखो मैंने पेंटिंग बनाई।”छोटे बेटे नें चहकते हुए कहा।
“हम्म,अच्छी है।”
“पापा, सिर्फ अच्छी!”
“अरे हां बेटा,तुम बाहर जाकर खेलो,परेशान मत करो।”मैंने लगभग झल्लाते हुए कहा।
“पापा ,हम इस संडे फिल्म देखने जाने वाले हैं न,आपने प्रॉमिस किया था।”बेटी चिंकी नें कहा।
“नहीं,इस सन्डे बहुत काम हैं,अगली बार जायेंगे।”मैंने बेटी को इस बार भी टाल दिया।पता नहीं कितने महीनों से उसे फ़िल्म दिखाने की बात को टाल रहा था।
“कोई आने वाला है क्या जी?”श्रीमती जी नें सीधे सवाल दागा।
“हां,वो हरीश है न मेरा दोस्त..आज शाम उसे बुलाया है,बहुत दिन हो गए थे मिले।”
“ये तो अच्छी बात है,रात का खाना भी यहीं खा लेंगे।मैं तैयारी कर लेती हूँ।”
“अरे तुम तकलीफ मत करो,बड़ा स्वाभिमानी है वो,बमुश्किल चाय नाश्ता करेगा,मैं जानता हूँ उसे,इसीलिए तुम्हें बताया नहीं था।”
दरवाज़े पर बजी घंटी नें दोनों का ध्यान खींचा।
हरीश ही था।हमने बीते दिनों की बहुत सारी बातें की,खूब ठहाके लगाये।
“और बताओ निर्मल..गाँव जाना हो पाता है अभी?”
“नहीं ,जब से माँ बाबूजी गुज़रे हैं गाँव जाना ही नहीं हो पाया।कुछ तो शहर की भागदौड़ नें रोक रखा है और कुछ बच्चों की पढ़ाई नें।”
मैं किसी तरह अपनी झेंप मिटाने का प्रयास कर रहा था।गाँव मेरी कमजोरी था,मेरी जिंदगी,मेरा बचपन सब कुछ..शहर तो आ गया था नौकरी के पीछे पीछे लेकिन सालों तक मेरा अंतर्मन मुझे कचोटता रहा,गांव का जिक्र आते ही समय जैसे थम जाता था,आँखें कुछ धुंधली हो जाती।कभी कभी जी चाहता कि गांव की सारी स्मृतियां,गलियां,बरगद का पेड़,रात को टिमटिम तारों से जगमगाता खुला आसमान,वो कच्चे रास्ते की सुगंध,खट्टी इमली का स्वाद,वो सारे मौसम जो सिर्फ गांव में होने पर ही अनुभव किये जा सकते हैं..सबको एक पोटली में समेट कर हमेशा हमेशा के लिए अपने पास ले आऊं।लेकिन कुछ सपनों की कसक ताउम्र रहती है,गांव भी उन्हीं में से एक है,ये कोई सुपरमार्केट का सामान नहीं जिसे क्रेडिट कार्ड के एक स्वाइप से खरीद कर लाया जा सके।
“कहाँ खो गया निर्मल?”हरीश के शब्दों नें मुझे तंद्रा से जगाया।
“कहीं नहीं,मैं दरअसल उन बुजुर्ग के बारे में सोच रहा था,क्या कहकर बुलाते हैं सब उन्हें..हाँ, याद आया ‘चचा’,सुबह ही तो बताया था तूने।”
“अरे हाँ,तू पूछ रहा था सुबह उनके बारे में,मैं उस वक्त थोड़ा जल्दी में था,अब इत्मीनान से बताता हूँ।”
“बहुत कम लोग होते हैं आज के ज़माने में जिन्हें खुद से ज्यादा दूसरों के हित की पड़ी होती है,चचा उन्हीं में से एक हैं,निस्वार्थ..निश्छल हृदय।तुझे जानकर हैरानी होगी चचा नें ट्रैफिक कंट्रोल का काम लगभग पैंतीस सालों से संभाला हुआ है।पहले उन्हें इस काम के लिए थोड़ा बहुत वेतन मिलता था लेकिन रिटायर होने की उम्र के बाद वो भी बंद हो गया,फिर भी चचा स्वेच्छा से अपने उसी जोश और लगन के साथ ये काम निरंतर कर रहे हैं।रोज सुबह आठ से दस बजे तक और शाम छह से नौ बजे तक वो काम करते हैं पूर्णतः अवैतनिक।”
“हरीश,उनका परिवार तो होगा न!”
“परिवार था।”
“था मतलब..अब नहीं है..!”
नहीं यार कोई नहीं बचा।चचा का एक बेटा,पुत्रवधु,एक पोती सब उस रोज एक हादसे में काल के गर्त में समा गए।आज से लगभग दस साल पहले चचा का इकलौता बेटा अपनी पत्नी और बच्ची के साथ स्कूटर पर कहीं जा रहे थे,रात का समय था,एक नशे में धुत्त ट्रक वाले नें लाल बत्ती तोड़कर स्कूटर को टक्कर मार दी।घटनास्थल पर ही चचा की पुत्रवधू और पोती चल बसे।उनके बेटे को भी गंभीर चोट आई थी,लहूलुहान हालत में तीनों बहुत समय तक सड़क पर ही मूर्छित पड़े रहे।ज्यादा खून बह जाने की वजह से चचा का बेटा भी बच नहीं पाया।चचा नें अपनी सारी जमापूंजी बेटे के इलाज में खर्च कर दी फिर भी बचा नहीं पाए।”
मैं सुन्न होकर हरीश की सारी बातें सुन रहा था।अख़बार में रोज ऐसे हादसे पढ़ता हूँ लेकिन हादसों से किसी की जिंदगी इस हद तक प्रभावित होती है इस बात का अंदाजा शायद मुझे उसी रोज लगा।
“अब उनकी आजीविका कैसे चलती होगी?”मेरे मुँह में जमे शब्द किसी तरह पिघल कर बाहर आ रहे थे।
“बस कर लेते हैं किसी तरह गुजर बसर।हादसे से पहले उनकी अपनी एक दुकान थी किराने की।लेकिन बेटे के वेंटिलेटर का खर्च उठाने के लिए वो भी बेचनी पड़ी।अब वो ट्रैफिक की ड्यूटी ख़त्म कर किसी मैकेनिक की दूकान में काम करते हैं,जो भी मिलता है उसी से अपना काम चलाते हैं।”
हरीश की बात सुनकर मन में बहुत बेचैनी हुई।चचा के प्रति मन ही मन नतमस्तक हुआ।जिंदगी को जीने के सबके ढंग अलग अलग हैं,किसी को सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करके सुकून मिलता है तो कोई सब कुछ होते हुए भी हर वक़्त शिकायत से भरा रहता है,जैसे मैं! जानबूझकर उदासी को प्रतिदिन न्यौता देता कोई मुझसे सीखे,जिंदगी का कैनवास स्वयं में खूबसूरत है लेकिन उसमें नकारात्मक सोच के छींटे डालकर मैंने उसे कितना बदरंग कर दिया था।आज का ये वाकया सुनकर मुझे खुद पर बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई।मैंने खुद को अक्रियता के ऐसे चक्रव्यूह में फंसा लिया था जहाँ से निकल पाना मुश्किल था।
“तुझे पता है ,चचा को इस कार्य के लिए बहुत से नामी लोगों ने सम्मानित भी किया है,एक रोज तो किसी मिनिस्टर नें गाड़ी रोककर चचा को गले लगाया और किसी प्रोग्राम में बुलाकर सम्मानित भी किया।उसी दिन चचा को एक आई कार्ड भी जारी किया गया।चचा ये सब पाकर फूले नहीं समाये।एक अलग ही चमक होती है उनके चेहरे पर जब वो भरी भीड़ में अपनी ड्यूटी निभाते हैं।वो हर आने जाने वालों में अपना परिवार देखते हैं।वो नहीं चाहते कि किसी और की जिंदगी सड़क दुर्घटना की वजह से ख़राब हो जाये।और एक बात जो उन्हें खास बनाती है वो बहुत आत्म सम्मान वाले व्यक्ति हैं,कुछ लोगों ने उन्हें रुपयों की मदद पेश की लेकिन उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया।वो किसी लालच की वजह से नहीं बल्कि सुकून के लिए ये काम करते हैं।उम्र के इस पड़ाव पर वो खुद अपनी वर्दी धोते हैं,प्रेस करते हैं,अपने लिए खाना बनाते हैं,उनका कहना है कि जब तक काम कर रहे हैं सक्रिय रहते हैं,जिस दिन काम छोड़ देंगे तो सीधा खाट पकड़ लेंगे।कितने अलग हैं हमारे चचा!”
हरीश की बातों में मुझे जैसे जीवन का सार मिलता नजर आ रहा था।मैं खुद में एक अलग ही ऊर्जा और सकारात्मक बदलाव को महसूस कर रहा था।
“अच्छा निर्मल, अब चलता हूँ।तुम्हारी भाभी और बच्चों को आज डिनर पर ले जाने का प्लान है,राह देख रहे होंगे।फिर मिलूंगा।”
“हाँ बाबा,अब तो मैं भी नहीं रोक सकता।अच्छा सुन,तेरे पास चचा का रहने का पता मिल जायेगा?”पता नहीं क्यों मैं जाते जाते उससे ये पूछ बैठा!
“पता? यार अभी तो नहीं है मेरे पास पर मैं तुझे पूछकर भेज दूंगा वाट्सएप पर।”
हरीश जा चुका था।
“माधवी,सुनो तो..जल्दी तैयार हो जाओ,बच्चों को भी तैयार कर लो।हम आज फिल्म देखने जायेंगे।”
माधवी अवाक खड़ी देखने लगी,शादी के इतने सालों बाद आज निर्मल नें खुद बाहर जाने का प्रस्ताव रखा।और वो स्वतःस्फूर्त विचार था,मित्र हरीश की देखा देखी नहीं था।
आज मुझे शहर सांस लेता दिखाई दे रहा था,रास्ते में जगह जगह फूलों की क्यारियों से एकदम ताज़ा महक महसूस हुई,रात की ओस में पेट्रोल की घुली गंध के बावजूद एक अलग ही अपनापन लगा जैसे शहर मुझे अर्से बाद गले लगाने को आतुर हो।रास्ते में लाल बत्ती पर सामान बेचने वालों पर पहली बार खिन्नता महसूस नहीं हुई,बल्कि ख़ुशी ख़ुशी बच्चों के लिए दो गुब्बारे भी ख़रीदे और माधवी के लिए गुलाब का फूल।इस बदलाव में कुछ तो बात थी,एक नयापन, जैसे जिंदगी नें अर्से बाद करवट ली हो।मैं खुश था,बहुत खुश..साथ ही मेरा परिवार भी।
जिंदगी के फीके रंग अब गहरे रंगों में तब्दील होने लगे थे।हर दिन एक नया सूरज मेरी खिड़की से अंदर आने को आतुर था।मैंने खुद को और जिंदगी को गले लगाना सीख लिया था।
अब ऑफिस जाते वक्त चचा को देखना और एक हल्की सी मुस्कान का आदान प्रदान करना रोज का नियम बन गया था।उन्हें देखकर पूरा दिन ऊर्जा से भरपूर होकर बीतता।मैं मन ही मन उनका शुक्रगुजार था।अब उन्हें रोज देखना ठीक वैसा ही नियम हो गया था जैसे कोई आस्थावान व्यक्ति मंदिर जाकर अपने आराध्य को देखता है।सच ही तो है,मेरे लिए तो चचा सचमुच मेरी जिंदगी में आराध्य बन गए थे।कभी शब्दों के माध्यम से कोई बातचीत नहीं हुई लेकिन हाँ मुस्कान का एक अटूट रिश्ता हम दोनों के बीच सेतु का कार्य करता था।चचा को भी शायद मेरी मन की स्थिति का आभास हो चला था।वो कभी भी मुझे अनदेखा नहीं करते थे।जिंदगी की गाड़ी अपने ट्रेक पर आराम से दौड़ रही थी कि तभी कुछ रुकावट महसूस हुई।मेरी नजरें बहुत दिन से अपने आराध्य यानि चचा को खोज रही थी लेकिन चचा कुछ दिनों से नजऱ नहीं आ रहे थे।किसी अनहोनी की आशंका से मन बैठा जा रहा था।लगभग एक हफ्ता बीत गया।क्या करूँ..किससे पता करूँ! कुछ समझ नहीं आ रहा था।तभी मुझे ध्यान आया कि हरीश नें एक बार मेरे कहने पर चचा का पता भेजा था।मैं मन ही मन उस दिन का शुक्रिया अदा कर रहा था जब मैंने अनायास ही चचा का पता पूछ लिया था।इस बार खुद को रोक नहीं पाया।और ऑफिस से जल्दी छुट्टी लेकर दिए गए पते पर मेरे कदम स्वतः मुड़ गए।एक अनकहा रिश्ता बन गया था उनसे जिसे मेरे और चचा ने सिवा कोई नहीं समझ सकता था।शहर की भीड़ भरी गलियों में जहाँ पड़ोसी को पड़ोसी की खबर से कोई ताल्लुक नहीं रहता मैं एक अनजान चचा से मिलने जा रहा था वो भी पूरी व्यग्रता और आत्मीयता के भाव के साथ जो सच्चे थे।शायद आज सभ्य शहरी संस्कृति पर गाँव की अपरिष्कृत मिट्टी का असर हावी हो रहा था।मुझे आँगन का बूढ़ा बरगद बाहें फैला अपनी ओर बुला रहा था और मैं बस बरबस खिंचा चला जा रहा था।
एक बेहद मामूली चारदीवारी में चचा लेटे हुए थे।जर्जर होती दीवारें और टिन की बनी छत चचा की स्थिति का हाल बयां कर रही थी।सुविधा के नाम पर एक पुराना मटका,चरमराती चारपाई,एक दीवार घड़ी दिखाई दिए।सब कुछ एकदम साफ सुथरा और करीने से रखा हुआ।कमरे के एक कोने में अखबार बिछा कर चचा नें अपने मैडल और सम्मान पत्र रखे हुए थे,लकड़ी की एक जर्जर खूंटी पर चचा की वर्दी और पहचान पत्र भी टंगे हुए थे।मैंने कमरे में घुसते ही एक झलक में सिंहावलोकन कर लिया था।
“कौन है बाहर?” चचा नें अपना चश्मा टटोलते हुए कहा।
“मैं हूँ चचा.. हम रोज लाल बत्ती पर मिलते हैं..नहीं नहीं आप उठने का तक्कल्लुफ़ मत कीजिये।मैं आपके पास आ जाता हूँ।”चचा की हालत बहुत बिगड़ गई थी,उनकी आवाज में कंपन मिश्रित होने लगा था।
“अरे बेटा तुम..तुम वही हो न नीली गाड़ी वाले?”चचा नें चश्मा पहनते हुए कहा।
“हां चचा, आपने पहचान लिया।आप आ नहीं रहे बहुत दिन से तो फ़िक्र होने लगी थी।”
“बेटा अब थोड़े दिन ही रह गए हैं लगता है।कुछ रोज पहले अचानक ही दिल का दौरा पड़ा और मैंने खटिया पकड़ ली।कमबख्त अब तो ये मुझे लेकर ही जायेगी।” बोलते हुए चचा मुस्कुराने लगे।”
“नहीं चचा आप जल्द ही दुरुस्त हो जायेंगे।हम नालायकों को आपके अनुशासन की आदत हो चली है,आपके बिना सब अधूरा हो जायेगा।” चचा की हालत देखकर मेरी आवाज में एक अनजानी घबराहट झलकने लगी थी।
“बेटा मैं तो हमेशा वहीं मिलूंगा चाहे रहूँ या न रहूँ।आदतें एक बार बन जाने के बाद मुश्किल से जाती हैं।शरीर है..अब ये भी कितने दिन साथ देगा!पुरे अठत्तर साल का हो गया हूँ।”
“चचा यहाँ कोई नहीं है आपकी देखरेख के लिए..चलिये ..मेरे साथ घर चलिये।मैं आपको बिल्कुल ठीक कर दूंगा।”मैं शायद बरगद के विशाल वृक्ष को जमीन से उखाड़कर अपने घर ले जाने का प्रयास कर रहा था।
“बेटा तुम्हारा अपनापन समझ सकता हूँ पर अब इस ठिकाने को छोड़कर कहीं और जाने का दिल ही नहीं करता।शायद यहीं मुझे मुक्ति मिलेगी।”
“पर चचा.. आपकी तबियत बहुत ख़राब है,मान जाइये न।”
चचा की आँखें दीवार की खूंटी पर टंगी वर्दी को एकटक निहार रही थी।
“चचा.. आप सुन रहे हैं?चचा..?
चचा के चेहरे पर शांत निश्छल भाव थे,एक हल्की सी मुस्कुराहट अभी भी उनके मुखमंडल पर दिव्य तेज की तरह सुशोभित हो रही थी।
मैंने हाथ छूकर देखा।श्वास की गति रुक चुकी थी।चचा जा चुके थे।

स्वरचित
अल्पना नागर

(4)

धर्मसंकट
कहानी

“अम्मी,ये हिन्दू कौन होते हैं?चार वर्षीय रहमान नें पूछा।
“शहजादे,हिन्दू हमारी दुश्मन कौम है,बहुत बुरे लोग होते हैं।”खाना बनाती आबिदा नें कहा।
“पर अम्मी इनका पता कैसे चलता है,क्या इनके बड़े बड़े दांत और लाल आँखें होती हैं,जैसी आप कहानियों में सुनाती हो!”रहमान की जिज्ञासा शांत नहीं हो रही थी।
“नहीं बेटा,ये हमारी तरह ही दिखते हैं,पर इनकी नियत बहुत ख़राब होती है,मन के काले होते हैं हिन्दू,सिर्फ अल्लाह नें ये दुनिया बनाई है।”
“मन के काले कैसे होते हैं?और अल्लाह नें दुनिया बनाई तो फिर बुरे हिन्दू क्यों बनाये!”
“ओहो रहमान,आप तो बस सवाल पे सवाल! जाइये आपके स्कूल का समय हो गया है।”पास ही खड़े रहमान के अब्बू नें कहा।
“क्या जरुरत थी,रहमान को ये सब बताने की?कभी तो अक्ल से काम लिया करो,अभी बच्चा है वो।”रहमान के अब्बू नें कहा।
“हुंह..बच्चा है पर कभी बड़ा भी तो होगा,अभी से जान लेगा तो सही रहेगा,हिंदुओ से जितना दूर रहेगा उतना ही अच्छा होगा उसके लिए।भूल गए! क्या हुआ था मेरे भाई का फैसलाबाद दंगों में..चीथड़े चीथड़े उड़ा दिए थे,हैवान हिन्दू दंगाइयों नें,कसाई कहीं के!अंतिम अलविदा भी नहीं कह पाए थे हम।”बीते दिनों की याद नें आबिदा के ज़ख्म हरे कर दिए थे।
“लेकिन आबिदा,क्या एक बच्चे में मन में जहर घोलना ठीक होगा? वो जो कुछ भी हुआ उसका अफ़सोस मुझे भी है,तुम्हारा भाई मेरा भी कुछ लगता था,इन्हीं हाथों से उसकी आधी अधूरी लाश दफनाई थी! लेकिन,मैं ये भी मानता हूँ कि भीड़ की कोई शक़्ल, कोई ईमान या धर्म नहीं होता..भीड़ चंद जमा लोगों का सामूहिक आक्रोश होता है।उन दंगो में जितने मुसलमान मरे,उससे कहीं ज्यादा हिन्दू भी मरे थे।मैं नहीं चाहता कि कल को हमारी औलाद,हमारा ज़िगर का टुकड़ा,उसी बेशक्ल,बेअक्ल भीड़ का हिस्सा बनें।मैं उसे इन सब चीजों से दूर रखना चाहता हूँ,अच्छी तालीम देना चाहता हूँ।”अब्बू नें कहा।
“अल्लाह के लिए बस कीजिये हिंदुओं की पैरवी करना,नफ़रत हैं मुझे उनसे और मरते दम तक रहेगी,अगर मेरे भाई की जगह आपका भाई होता तो क्या आप तब भी यही कहते!”आबिदा तिलमिला उठी।
“आबिदा तुम भूल रही हो…याद है आज से पांच साल पहले रमजान के महीने में मेरे अब्बा जान गुजर गए थे !दरअसल वो भी दंगों के ही शिकार थे,उस रोज नमाज पढ़कर वो घर लौट ही रहे थे कि तभी नुक्कड़ पर दंगाई मिल गए,और देखते ही देखते उन्होंने….।”कहते हुए रहमान के अब्बू की आँखें भर आयी।”तुम गलत समझ रही हो।भला मैं हिंदुओं की पैरवी क्यों करूँगा!मैं तो बस इस नफरत के खिलाफ हूँ।”रुंधे गले से आसिफ़ कहने लगे।
आसिफ़ ,रहमान के अब्बू एक सरकारी स्कूल में शिक्षक के पद पर कार्यरत थे।बहुत ही नेकदिल और सुलझे विचारों वाले आसिफ़ नें भी दंगों में अपने अब्बा को खो दिया था,लेकिन फिर भी वो हक़ीक़त से ताल्लुक रखने वाले ऐसे इंसान थे जिनके लिए इंसानियत मज़हब से भी ऊपर थी।
दंगों में बहुत से लोगों की तरह आबिदा नें भी किसी अपने को खोया था,जिसके घाव अभी तक उसके जेहन में जिन्दा थे।
“अम्मी,अम्मी,अम्मी….पता है आज स्कूल में क्या हुआ!”बैग और टिफिन को बिस्तर पर फेंकते हुए रहमान बोला।
“हम्म आज भी तुम्हारा दोस्त टिफ़िन खा गया?”
“नहीं,अम्मी! वो तो रोज़ खा जाता है मेरे पीछे से,आप बनाती ही इतना अच्छा हो,पर आज मेरी एक बहुत अच्छी दोस्त बनी है।”
“अच्छा?”
“उसने अपना टिफ़िन मेरे साथ शेयर किया,और मुझे अपने कलर्स भी दिए,और और मुझे अपनी ड्राइंग बुक भी दी,अम्मी उसके पास बहुत अच्छी अच्छी स्टोरी बुक भी हैं,परी और राजकुमार की कहानियों वाली बुक,उसने कहा है वो मुझे कल लाकर देगी।”रहमान बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह बोलता जा रहा था।
“अच्छा ! नाम क्या है आपकी नई दोस्त का?”
“हम्म…नाम…उसका नाम अंकिता है अम्मी।”सर खुजाते हुए रहमान बोला।
“ओह, हिन्दू है..!”आबिदा के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगी।
“पता नहीं अम्मी,ये तो पूछा ही नहीं मैंने!पर अम्मीजान वो बहुत सुंदर है,उसकी भी राबिया दीदी जैसी दो चोटियां हैं।और रंग भी गोरा है आपके जैसा।अगर हिन्दू होती तो बुरी होती न! उसका मन भी काला होता,पर वो तो ऊपर से नीचे तक पूरी सफ़ेद है,बिल्कुल राबिया दीदी जैसी।”
आबिदा के दिलोदिमाग में हलचल सी मच गई,अचानक से ही वो रहमान पर भड़क उठी।
“कोई जरूरत नहीं है उस लड़की से बात करने की,और ख़बरदार जो कभी उसका खाना खाया या कोई चीज शेयर की!”
नन्हा रहमान कुछ समझ पाता उससे पहले ही आबिदा नें उसे खींचकर कसकर गले से लगा लिया।
पता नहीं क्यूँ इंसान जैसे जैसे बड़ा होता जाता है उसके दुराग्रह ,उसकी शंकाओं का घेरा भी बड़ा होता जाता है।बचपन सुबह पत्तों पर छाई ओस की बूंदों सा एकदम मासूम,पवित्र,शीशे सा चमकता हुआ होता है…लेकिन कब परिपक्वता का सूरज अपनी दृष्टि डालता है और वो मासूम ओस कब हवा में अदृश्य हो जाती है,कोई नहीं जानता!बच्चों से बहुत सी बातें सीखी जा सकती हैं लेकिन हमारी ‘परिपक्व’ सोच हम पर हावी होने लगती है।
खैर, सब कुछ अच्छा चल ही रहा था कि एक दिन वह हो गया जिसकी किसी नें कल्पना भी न की थी।
अस्पताल के मैनेजमेंट विभाग से एक जरुरी फोन आया,और रहमान के अम्मी अब्बू को तुरंत वहाँ पहुँचने का निर्देश दिया गया।
जब वहाँ पहुंचे तो एक और परिवार वहाँ मौजूद था।देखने से हिन्दू परिवार लग रहा था।माता पिता के अलावा रहमान का हमउम्र एक और बच्चा अपनी माँ से चिपका हुआ था।
“साहब आप पूरी जांच पड़ताल कीजिये।हमें विश्वास है कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ हुई है।” हिन्दू दंपत्ति अस्पताल के मैनेजर से निवेदन कर रहे थे।
“लीजिये ये लोग भी आ गए,अब आप दोनों आपस में ही बात कर लीजिए।”मैनेजर नें रहमान के अब्बू की तरफ इशारा किया।
“मेरा नाम रमेश अग्रवाल है,ये मेरी पत्नी शीतल और बच्चा रोहन है।मामला ये है कि चार साल पहले बाइस अक्टूबर को जन्मे बच्चों में आपका भी बच्चा है,उसी दिन मेरी पत्नी नें भी पुत्र को जन्म दिया था,पुराने रिकॉर्ड को खंगालने पर ज्ञात हुआ कि मेरी पत्नी और आपकी पत्नी उस दिन एक ही वार्ड में भर्ती थे,जिन्होंने लगभग एक ही समय पुत्रों को जन्म दिया।” रमेश नें रहमान के अब्बू से कहा।
” जी सही फ़रमाया आपने,मेरा नाम आसिफ़ है।बाइस अक्टूबर रात एक बजे हमारे रहमान का जन्म हुआ था इसी अस्पताल में।”रहमान के अब्बू नें सहमति जताई।
“तो आसिफ़ जी बात ये है कि रोहन की मौसी को रोहन के सांवले रंग को देखकर संदेह हुआ।हम दोनों पति पत्नी का रंग एकदम साफ है,लेकिन रोहन का रंग दबा हुआ है,खैर ये बिल्कुल बेतुकी बात है जिसे मैं सिरे से इंकार करता हूँ,यहाँ तक कि रोहन की मम्मी और दादी भी मौसी की बात से कोई इत्तेफाक नही रखते,हम सब रोहन से बेइंतिहा प्रेम करते हैं,हम सब की जान बसी है उसमें।अब तक उनका मानना है कि रोहन उनका अपना खून है,उन्हीं का अंश है,लेकिन एक बार इसकी मौसी की जिद में आकर हमने रोहन का डीएनए टेस्ट कराया और पता चला कि रोहन का डीएनए मुझसे मिलता ही नहीं!” रमेश अग्रवाल नें स्पष्ट करते हुए कहा।
रमेश अग्रवाल की पत्नी मासूम रहमान को बड़े ही प्यार और अपनेपन से देख रही थी।
आबिदा और आसिफ़ का मुँह खुला रह गया,आने वाली किसी अनहोनी की घटना से दोनों सहमे हुए चुपचाप सुन रहे थे।रहमान अपनी अम्मी के और नज़दीक चला गया।
“उस दिन वार्ड में तीन औरतें भर्ती थी,और हमें लगता है उस दिन बच्चे अंजाने में बदले गए हैं,अपने मन की तस्सली के लिए हमने उस परिवार से निवेदन किया बच्चे के डीएनए टेस्ट के लिए,बड़े ही भले लोग थे,मान गए,लेकिन उनके बच्चे का डीएनए भी मैच नहीं हुआ।अब बचे आप लोग…तो अगर अनुमति हो तो…।”रमेश अग्रवाल नें अपनी बात रखी।
आसिफ़ नें आबिदा की ओर देखा,वो बेहद घबराई हुई और चिंतित लग रही थी,रहमान को उसने अपने और क़रीब चिपका लिया।रहमान भी किसी हिरण के बच्चे की तरह अम्मी के आँचल में दुबक गया।
तभी आसिफ़ नें विनम्रता के साथ टेस्ट की अनुमति दे दी।ये सुनकर आबिदा विचलित हो उठी।
“ये सब गलत है,अल्लाह के लिए मेरे बच्चे को मेरे पास ही रहने दो,रहमान मेरा बच्चा है,मेरा अपना खून है।”
“आबिदा, टेस्ट ही तो है,हो जाने दो,इन्हें भी तसल्ली हो जायेगी।कुछ नहीं होगा,अल्लाह पर भरोसा रखो।”हालांकि खुद आसिफ़ मन ही मन पशोपेश में था,रहमान को खोने के डर से अंदर ही अंदर बेहद घबराया हुआ था,लेकिन किसी तरह खुद को संयत कर हिम्मत से काम ले रहा था,ताकि आबिदा की हिम्मत न टूटे।
डीएनए टेस्ट हुआ और परिणाम पॉजिटिव निकला।उस दिन तैनात दोनों नर्सों को लापरवाही के जुर्म में नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया गया।
काँपते हुए हाथों से आसिफ़ नें टेस्ट रिपोर्ट देखी।आबिदा रिपोर्ट पर यकीन करने को तैयार न थी।
“,सब झूठ है,ये अस्पताल.. ये डॉक्टर..सब लोग,मैं माँ हूँ रहमान की,क्या इससे बड़ा टेस्ट कोई हो सकता है?दूध पिलाया है इसे अपना!आप कैसे कह सकते हैं रहमान मेरी औलाद नहीं!”आबिदा लगातार बड़बड़ाये जा रही थी,आसिफ आँखों ही आँखों में हिन्दू परिवार को सांत्वना दे रहे थे।
तभी अस्पताल के बरामदे से कुछ फीट की दूरी पर अचानक रोहन के रोने की आवाज़ आयी।दोनों परिवार बातचीत में इतनी गंभीरता से मग्न थे कि उन्हें अहसास ही नहीं हुआ,रोहन खेलते हुए कब वहाँ से निकल गया!
“रोहन,मेरा बेटा..लगी तो नहीं तुझे!”कहकर घबराई हुई शीतल देवी नें रोहन पर चुम्बनों की बौछार कर दी।रमेश अग्रवाल भी भागकर रोहन के पास आये और दुलारने लगे।
आसिफ़ और आबिदा भी बच्चे को सँभालने दौड़े।रोहन को दाएं पैर के घुटने में चोट लगी थी।आबिदा नें अपनी चुन्नी का एक कोना फाड़कर तुरंत रोहन के पाँव में बांधकर प्राथमिक उपचार किया।
“रमेश जी आप बताइए क्या करना चाहिए ?आबिदा को मैं समझा लूंगा,थोड़ा वक़्त लगेगा,माँ है न आखिर लेकिन धीरे धीरे समझ जायेगी।पर एक बात कहना चाहता हूँ अचानक रिश्ते नहीं बदले जा सकते।अस्पताल प्रबंधन से जो गलती हुई उसकी सजा दोनों माँओं को क्यूँ दी जाये ! हम जानते हैं रहमान की तरह आपने भी रोहन को बेपनाह प्यार दिया है,ये सब आपके लिए भी आसान नहीं होगा।” आसिफ़ नें कहा।
“जी आसिफ जी ,रोहन हम सब का दुलारा,हमारी जान बन चुका है,अब ये हमारे लिए भी संभव नहीं होगा।लेकिन हम एक काम कर सकते हैं अगर आपको मंजूर हो तो..”।रमेश नें संकोच के साथ पूछा।”क्या हम दोनों परिवार अपने बच्चों की ख़ातिर हर महीने मिल सकते हैं?इससे बच्चों को भी दोनों माँओं का प्यार मिल सकेगा।”
“अरे भाईजान! इससे नेक ख्याल भला और क्या होगा! मैं भी यही सोच रहा था।दोनों परिवार जुड़ेंगे,भाईचारा बढेगा।अल्लाह रहम करम।”
कहकर आसिफ़ और रमेश एकदूसरे से गले मिलने लगे।उन दोनों के चेहरों पर अब सुकून के भाव तैर रहे थे।
शीतल और आबिदा दोनों नें एक दूसरे को देखा और मुस्कुराई।हिंदुओं से नफ़रत करने वाली आबिदा खुद चलकर शीतल को गले लगा रही थी।खून के रिश्ते पर इंसानियत का रिश्ता भारी पड़ रहा था।वर्षों से जमा हुआ नफ़रत का कोहरा छँटने लगा था।इंसान जन्म से किसी धर्म का पहरेदार नहीं होता है,अपितु उसे बनाया जाता है,इंसान रूपी कच्ची मिट्टी को धीरे धीरे तालीम और धर्म की थपकी देकर पक्के घड़े में परिवर्तित किया जाता है।आज की इस घटना नें दोनों परिवारों को प्रेम के धागे से जोड़ दिया था।
“अम्मी जान, क्या हिन्दू सचमुच हमारे दुश्मन हैं? रहमान नें मासूमियत से वही प्रश्न दोहराया।
“नहीं बेटा, हिन्दू मुस्लिम दोनों भाई भाई हैं।”आबिदा नें उत्तर दिया।
“अम्मी,फिर काला मन किसका होता है?”
“शहजादे, काला मन बुरा सोचने वाले का होता है।”
“तो क्या अब मैं अंकिता का टिफ़िन शेयर कर सकता हूँ!”गोल गोल आँखें मटकाता हुआ रहमान बोला।
“बिल्कुल कर सकते हो,मेरी बनाई मीठी सेवइयां खिलाना कल उसे।”आबिदा नें हँसते हुए कहा।

स्वरचित
अल्पना नागर

(5)

कहानी
वेदना

“बेटा, एक बार बात तो कर लो।मैं कब से फोन किये जा रही हूँ, सिर्फ एक बार इस अभागिन की बात सुन लो ! फिर चाहे जो सजा देनी हो,दे देना।” फोन के दूसरी ओर एक काँपते पत्ते सी आवाज फड़फड़ा रही थी।
“आपसे कितनी बार कहा है..यहाँ फोन मत किया करो।कितने नम्बर ब्लॉक करूँ,हर बार पता नहीं कहाँ कहाँ से फोन करती रहती हो!”खट्ट से फोन कटने की आवाज आयी।
उंगली का नाखून जब कटकर गिरता है तो दर्द नहीं होता,वो स्वेच्छा से काटा जाता है।सभ्य समाज में रहना है तो नाखून कटे होना पहली शर्त है।एक प्राकृतिक क्रिया बिना किसी दर्द या वेदना के।अपने बच्चों को अलग करना भी कुछ ऐसा ही है।दूर किसी अच्छी जगह अध्ययन के लिए अपनी संतान को भेजना सभ्यता की ओर पहला कदम..समाज की दृष्टि में!
लेकिन नाखून अगर स्वेच्छा से ही जड़ से निकाल कर अलग कर दिया जाए तो..उफ्फ कल्पना मात्र से ही पूरे शरीर में एक झुरझुरी दौड़ पड़ी..है न!असहनीय वेदना !
हाँ.. मैनें अपने ही हाथों अपनी उंगलियों के नाखून नोच डाले।अब आप सोच रहे होंगे कि भला कोई अपने आप से ऐसा क्यों करेगा!इस तरह की यातना स्वयं को क्यों देगा!
आज से बीस वर्ष पूर्व मेरी गोद में वो आयी।रुई के गोले सी सफेद झक्क मुलायम मेरी बच्ची..देखते ही मैं अपनी सारी प्रसव वेदना भूल बैठी।बस मातृत्व की धारा पूरे बदन में हिलोरें मार रही थी।मैं सोते जागते हर वक्त बस उसे निहारती रहती।रात सोते वक्त उसका मासूम चेहरा दैवीय जान पड़ता था,मैं हर क्षण सतर्क रहती कहीं मेरी वजह से नन्हीं जान को कोई तकलीफ न हो।उसे जन्म देकर मैं पूर्ण हो गई थी।एक नया जन्म..स्वयं मेरा !
“ये इतनी प्यारी है..इसे तो मैं ही रखूँगी अपने पास..।”हसरत से निहारती दीदी नें गोद में उसे दुलारते हुए कहा।
“अरे दीदी..मेरे कलेजे का टुकड़ा है ये..इसे तो मैं नहीं दूँगी।मेरे पास ही रहेगी मेरी राजकुमारी।” बात को गंभीरता से लेते हुए मैनें कहा।
दीदी पंद्रह वर्ष के विवाह पश्चात भी निःसंतान के दंश को झेल रही थी।मैं उनकी भावना समझ रही थी लेकिन मेरी भावना का क्या..! एक नई नवेली माँ को उसका पहला बच्चा कितना प्यारा होता है ये बताने की जरूरत नहीं।एक माँ अपने ही अंदर के एक टुकड़े को नया जीवन देती है।वो टुकड़े के जरिये स्वयं का विस्तार कर रही होती है।और संतान अगर लड़की है तो एक माँ हमेशा के लिए ‘जीवित’ हो जाती है।उसकी आदतें,गुण,संवेदनशीलता और स्त्रीत्व सब उसमें स्थानांतरित हो जाते हैं।एक माँ के लिए इससे बढ़कर सुकून और क्या हो सकता है।सच कहूँ तो मैं उस वक्त बहुत ज्यादा स्वार्थी हो गई थी।मैनें ये भी नहीं देखा कि दीदी का खिला हुआ चेहरा मेरे जरा से वक्तव्य से कितना आहत हुआ..एकदम से मुरझा गई थी वो।पर मैं क्या करती मुझ पर उस वक्त एक माँ हावी थी जिसके लिए उसकी संतान ही सब कुछ थी।
वक्त नें शायद मेरी बेरुखी को पहचानकर मुझे जोरदार चांटा जड़ा।उसे मंजूर ही नहीं था कि मैं मातृत्व के उस अलौकिक सुख को ज्यादा देर अनुभूत कर सकूं।उसे देख देखकर दिन जैसे पंख लगाकर उड़ रहे थे।वो मुश्किल से साल भर की हुई कि एक खबर नें मुझे हिला कर रख दिया।काली खांसी का दौरा मेरे जीवन को किस कदर काला स्याह कर देगा मैनें सोचा तक न था।दिन रात मेरे कलेजे से उठती असहनीय वेदना और निरन्तर खांसी के दौरे नें घर की नींव हिला दी।बहुत तरह के वैद्य हक़ीम और डॉक्टर से परामर्श लिया किन्तु कोई फायदा नहीं..खांसी जैसे मेरे अंतस में डेरा डाल के बैठ गई।वो जैसे कीमत मांग रही थी अपनी सबसे बेशकीमती चीज़ से खुद को जुदा करने की!मैं किसी दीमक लगे विशाल पेड़ की तरह किसी भी क्षण गिरने वाली अवस्था में स्वयं को महसूस कर रही थी।मेरे सपने में अक्सर एक काला साया उठता हुआ दिखता वो जब भी आता मेरी फूल सी कोमल बच्ची को अपनी मजबूत भुजाओं में उठाकर धुआँ बन अदृश्य हो जाता, सुबह उठकर मैं पसीने पसीने हो उठती।पास लेटी बच्ची को सुकून से सोया देखकर भी मन में उस काले साये की दस्तक सुनाई देती थी।
काली खांसी का उस वक्त कोई पुख्ता इलाज न था।मुझे संक्रमण की चिंता सताने लगी।मुझे काला साया अब मेरे बेहद नजदीक बैठा दिखाई देने लगा।मुझे लगा मैं शायद अपना दिमागी संतुलन खोने लगी हूँ।मैं हवा में ही अदृश्य रूप से उस हावी होते साये पर अपने हाथ पांव मारने लगती।मेरा परिवार ये सब देखकर सकते में आ जाता।कोई भी अगर मेरी स्थिति देखता तो शायद यही प्रतिक्रिया देता।
बिगड़े दिमागी संतुलन में भी मुझे ख़याल आया कि मुझे अपनी बच्ची की उस काले साये से हिफाजत करनी है किसी भी हाल में।मैं अपने आप से लड़ रही थी,समय की सख्त नुकीली सुइयां जो भाला बनकर मेरी बच्ची की ओर निशाना साधे थी,मैं स्वयं को उनके आगे देख पा रही थी।सुइयों की चुभन मुझे इतना परेशान नहीं करती थी जितना ये ख़याल कि मेरे न होने पर यही नश्तर मेरी बच्ची को चुभे तो !
आनन फानन में मैं एक फैसला ले चुकी थी।एक बहुत बड़ा पत्थर मुझे अपने कलेजे पर महसूस हो रहा था।टेलीफोन पर नम्बर डायल करते मेरे हाथ बुरी तरह काँप रहे थे।
“दीदी आप प्लीज जल्दी आ जाओ..।”
बोलते हुए मेरे शब्द मुझसे ही टकरा रहे थे।
दीदी के हाथों में मेरी बच्ची खिलखिलाते किसी झरने सी दिखाई दे रही थी।मुझे संतुष्टि थी कि मेरा फैसला गलत हाथों में नहीं है।मैं अपनी जान उसे सुपुर्द करने वाली थी जो इसकी हिफाज़त जान से भी बढ़कर करना जानती हो।दीदी पर मुझे भरोसा था।
मैं अपनी बच्ची को दूर ले जाते हुए देख रही थी।जाते हुए दीदी की पीठ पर चिपकी उसकी मासूम आँखें आज भी मेरा पीछा करती हैं।उन मासूम आँखों में भरे तात्कालिक आँसू स्थानांतरित होकर मेरी आँखों में हमेशा के लिए ठहर गए।दीदी नें उसका पालन पोषण बहुत अच्छे से किया।वो नाजों से पली बढ़ी।मेरी गोद भरकर भी सूनी ही रही,ये कैसी नियति थी!
क्रूर वक्त नें करवट ली।मेरे असाध्य रोग नें जैसे कीमत चुकता होते ही अपनी जकड़ ढीली कर दी।वो काला साया सचमुच मेरी बच्ची को हमेशा के लिए लेकर चला गया।समय के साथ मैं स्वस्थ होती गई।बच्ची परिपक्व सुंदर युवती में तब्दील हो गई।उसे पुनः पाने के समस्त प्रयास वैसे ही विफल हो गए थे जैसे आत्मा गिरवी रखने के बाद बचा हुआ शरीर!
बीस वर्ष पूर्व जिस स्वार्थमयी माँ का किरदार मैं निभा रही थी उसी किरदार में आज दीदी को देख रही थी।उन्होंने बेटी को हमेशा हमेशा के लिए पाने के लिए मेरे विषय में जो कुछ भी कहा उससे उन दोनों के बीच का संबंध तो प्रगाढ़ हुआ किन्तु मेरे और बिटिया के बीच गहरी खाई जितनी दूरियां पैदा हो गई जहाँ से दूर रहकर किनारे से लाख आवाज दो किसी प्रत्युत्तर की कोई संभावना न थी,खाई को पारकर नजदीक जाना तो बहुत दूर की बात थी।उसे कहा गया कि मैनें उसे बेटे की चाहत में जानबूझ कर त्याग दिया।दीदी की आँखों में झाँककर देखा,उनमें ‘पश्चाताप’ की भावना के साथ एक असहाय माँ भी झलक रही थी।सच है जन्म के एक वर्ष बाद से ही वो उसपर अपना सर्वस्व वारकर जी जान से उसका ख़याल रख रही थी।सही मायनों में वही उसकी ‘यशोदा’ माँ थी।किन्तु जिसे जन्म दिया उसकी आँखों में मेरे लिए नफरत के अंगार नहीं देख पा रही थी।लग रहा था कि एक दिन ये उपेक्षित अंगारे मुझे भस्म कर देंगे।मेरी आत्मा को रोज उनमें स्वाहा होते देखना कितना दुष्कर कार्य था ये बात शायद मेरे अलावा कोई नहीं समझ सकता।
मुझे आज भी याद है वो दिन जब दीदी नें एक कार्यक्रम का आयोजन किया था,मुझे बेमन से ही सही उसमें उपस्थित होने के लिए औपचारिक निमंत्रण दिया था।मैं बेटी की एक झलक देखने की ललक में किसी अदृश्य डोर के सहारे खींची चली आयी।मुझे देखकर दीदी के चेहरे पर उड़ती हवाइयां उनके अंदरूनी हाल बयां कर रहे थे।खैर मुझे उनसे कोई गिला नहीं था।मेरी नजरें उसी मासूम पौधे को ढूंढ रही थी,जो मेरे अंदर हर रोज पनप रहा था,जिसे अपने आत्मीय वात्सल्य के जल से मैनें हर रोज सिंचित किया था,उसकी सलामती और खैर की दुआएं पढ़ी थी।लेकिन मैं इतना भी जानती थी कि पौधा अब खूबसूरत वृक्ष में तब्दील हो चुका होगा,जिसे सिर्फ देखभाल करने वाले दृश्यमान माली की ही परवाह होगी न कि प्रार्थना से सींचने वाले अदृश्य जल की!
अपने बीसवें जन्मदिन पर वो जब तैयार होकर सबके सामने आयी, किसी स्वप्निल राजकुमारी सी लग रही थी,सब अपलक बस उसे निहारते रह गए।वो हूबहू अपने पिता की तरह तेजस्विनी थी।मैं मेहमानों की भीड़ में पीछे से उसे निहार रही थी।ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रही थी कि इस दिन से मुझे नवाजा।मेरी बेटी को कुशल हाथों नें संवारा।
सहसा उसकी निगाह मुझपर पड़ी।वो शायद किसी पुरानी तस्वीर से मुझे पहचान गई थी।अपना खून था,कैसे नहीं पहचानता!मेहमानों की भीड़ को चीरते हुए वो मेरे पास पहुँची।उसके और मेरे बीच की दूरी तय होने तक न जाने कितने जन्मदिन जो मैंने उसकी अनुपस्थिति में अकेले मनाए,किसी फ्लैशबैक की तरह एक एक कर मेरी नजरों के सामने आये।मैनें अपने हाथ फैला लिए ताकि उसे गले लगा सकूँ।वो अब मेरे ठीक सामने थी किसी प्रतिबिम्ब की तरह।भावनाओं के उमड़ते वेग को मैनें किसी तरह अपनी आँखों की देहरी पर रोका।उसकी नजरों में मेरे लिए नफरत का समंदर तैर रहा था,मेरी फैली हुई बाहें पुनः अपनी हद में आकर सिमट गई।बहुत देर तक हम दोनों के बीच मूक वार्तालाप हुआ।वो बहुत से प्रश्नों का ढेर मुझपर उड़ेल देना चाहती थी लेकिन सजा के तौर पर उसने चुना चुप्पी जो मुझे नश्तर की तरह हर जगह चुभने लगी।
“बेटी..”।मेरे मुँह से उस वक्त सिर्फ इतना ही निकल पाया।
“मैं नहीं हूँ आपकी बेटी..नफरत है मुझे आपसे..! बहुत बहुत नफरत..क्यों आयी हैं आप आज यहाँ..!”आक्रोश का ज्वालामुखी यकायक उसके अंदर से फूट पड़ा।उसकी सुर्ख आँखें बहुत कुछ बयां कर रही थी।
मेरी आँखों में रुकी हुई निर्झरिणी बह निकली।उसे देने के नाम पर दुआ से भरा हाथ उसके सर पर फेरती इससे पहले ही भीड़ को चीरते हुए वो मेरी नजरों से ओझल हो गई।एक काला साया उसकी परछाई बन दूर से मुझे दिखाई दे रहा था।वातावरण में अजीब सा अट्टहास सुनाई दिया।मेरी सभी इंद्रियां मुझे हेय दृष्टि से देख रही थी।मेरी आँखों पर छाई नम धुंध मिटने का नाम नहीं ले रही थी।मैं उसे और ज्यादा दुःखी नहीं देख सकती थी।अपने कलेजे के टुकड़े से कभी न मिलने के खुद से किये वादे के साथ मैं भरे मन से लौट आयी।
मुझे अपने नाखूनों में असहनीय वेदना महसूस हो रही थी।

-अल्पना नागर

परिचय
नाम-अल्पना नागर
पता- 412,विज्ञान सदन,रामाकृष्णा पुरम,सेक्टर 10,नई दिल्ली 110022
अभिरुचि- हिंदी साहित्य लेखन व पठन, कविताएं,कहानियां लेखन।
साहित्य संप्रति- व्यक्तिगत काव्य संग्रह”मुट्ठी भर धूप” पत्र पत्रिकाओं में लेखन प्रकाशन एंव अन्य साझा संग्रह
मोबाइल-07982190289
ईमेल- alpanaalpu88@gmail.com
ब्लॉग- alpananagar.blogspot.com

मैं घोषणा करती हूँ कि प्रस्तुत रचना मौलिक एंव अप्रकाशित है।

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