पहाड़ से याचना
पहाड़ से क्या मांगना है!
जो था सब दे दिया है।
पाँच सौ साल बाद मैं फिर लौटा हूँ।
मेरे हाथ और मेरा साथ दोनों ही खाली हैं।
पथराई आँखों से तब भी देखा था
अब भी देखूंगा,मार-काट,लूट –पाट।
मेरे हाथ में तब कुछ नहीं था
विरोध करने का हक,तक।
अब हक है किन्तु,भयभीत हूँ
पाँच सौ साल पूर्व कत्ल देखे हैं मैंने।
खंड-खंड अपमानित किए जाने का दृश्य
भूलता नहीं।
पाँच सौ साल बाद
इतिहास बदलने या दुहराने के वक्त
‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का हत्यारा बनूँ?
यह व्यक्तिगत नहीं सामूहिक प्रश्न है।
पहाड़ साक्षी है। उसे पूछूं!
क्या कहता है वह?
तुम नारे में तब्दील हो जाओ।
तुम नारे से तकदीर बदल लो।
नारे भीड़ नहीं हैं,हालांकि,
भीड़ के पास नारे ही होते हैं।
नारा भीड़ का तोप,तलवार,बम है।
चौराहे पर शोरगुल ज्यादा है।
विचारों की गहमा-गहमी।
विचार होने लगे हैं
हिंसक विद्रोह के प्रेरणा स्रोत।
दरअसल,
विचार भी चरित्रहीन होने लगे हैं।
स्वार्थगत।
तुम्हारे सोच पर तुम हावी नहीं हो।
तुम्हारा वर्तमान अतीत से डरा हुआ है।
निर्णय पूर्वाग्रही है।
विजेता का पागलपन झूठ नहीं है।
इस झूठ से डरे हुए हो तुम।
यह अवसर है,सत्य स्थापित करने का।
मन से देह का डर विस्थापित करने का।
समुद्र लौट जाता है आने के लिए।
अपना रौद्र-रूप दुहराने के लिए।
समुद्र को लौटने से रोकने के लिए
हर पहाड़ अटकाना है।
तुम्हें सापेक्ष नहीं निरपेक्ष होना है।
समुद्र तभी रुकेगा।
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अरुण कुमार प्रसाद 28/5/22