पहाड़ों की रानी
मैं
लगाना चाहता हूँ
तुम्हारे जूड़े में चेस्टनट के फूल
क्योंकि
मुझे दिखते हैं इनमें
कई साफ शफ़्फ़ाफ़ दिल
नहीं है जिनमें ज़रा सी भी कटुता
आज के प्रयोगवादी युग में भी
नहीं फ़र्क पड़ता इन्हें
कि
आ रही है अज़ान मस्जिद से
या मन्दिर से घण्टियों की आवाज़
झूमती हुई डाली से लगे
खिलखिलाते रहते हैं
देखकर खिलखिलाते चेहरे…
भर देना चाहता हूँ
तुम्हारे दिल में
माल रोड की रंगीन शाम जैसी खुशियाँ
जो नहीं करती भेदभाव
धर्म के नाम पर, जात के नाम पर
भाषा के नाम पर या प्रान्त के नाम पर
हाँ, करती है स्वागत
सबका खुले दिल से
जैसे किया था इसने कभी अंग्रेजों का
जबकि वे आए थे पहले पहल
सुनकर इस नवयौवना के चर्चे…
कर देना चाहता हूँ
तुम्हारे मन को निर्मल और शीतल
कैम्पटी फॉल के गिरते झरने सा
जिसमें भीगकर
मन को मिलती है एक अद्भुत शान्ति
दूर हो जाती है थकान
तन और मन दोनों की
हो जाता हूँ एकदम तरोताज़ा
एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत…
बना देना चाहता हूँ
तुम्हें पहाड़ों की रानी मसूरी जैसी खूबसूरत
जो हमेशा मुस्कुराती रहती है
चाहे पहन रखा हो इसने
दहकते लाल बुरांस के फूलों का परिधान
या ओढ़ लिया हो
ठण्डी बर्फ़ की सफ़ेद चादर
मौसम भले ही अनुकूल हो या प्रतिकूल
इसकी फ़ितरत में शामिल है
खुशियाँ बांटना…
मैं
बनाना चाहता हूँ,
और
ज़रूर बनाना चाहूँगा तुम्हें
पहाड़ों की रानी
मसूरी जैसी खूबसूरत।
© शैलेन्द्र ‘असीम’