पहाड़ की नारी
नदी सी चंचल,पर्वत सी अटल
शीत-घाम मे चलती अविरल
पृथ्वी सी धृती,और फूल सी प्यारी
ऐसी होती हैं,पहाड़ की नारी——
आलस जिसको छू भी न पाता
सूरज से पहले जिसका दिन उग जाता
बैठे न बनकर कभी जो बिचारी
ऐसी होती हैं पहाड़ की नारी——
खेतों का वह हल बन जाती
बागों मे वह फल बन जाती
त्योहारों का रंग बन जाती
और मेलों मे ज्यों गुल क्यारी
ऐसी होती हैं पहाड़ की नारी——-
किसने उसको सोते देखा….?
किसने उसको रोते देखा….?
किसने गाते दुख को देखा…..?
देखी तो मुस्कान की रेखा
विपदा पर भी पड़े जो भारी
ऐसी होती हैं पहाड़ की नारी——–
खेत-खलिहान घर और दुकान
उसको सब बातों का ज्ञान
लकड़ी-घास ,चूल्हा और बर्तन
सबको रखकर अपने ध्यान
शिक्षा को भी रखे वो जारी
ऐसी होती हैं पहाड़ की नारी——-
बाबा का वह आँख का चश्मा
बाबू के जूतों का तश्मा
अम्मा की रोटी और चटनी
बहन,माँ,बेटी और पत्नी
हर रिश्ते में लगे हैं न्यारी
ऐसी होती हैं पहाड़ की नारी——
©निकीपुष्कर