“पहले जैसा कहाँ बसंत”
मधु मास आ गया,
उल्लास छा गया,
शिशिर का अंत,
बसंत का आगमन,
फूलों को महका गया,
पीली – पीली सरसों फूली,
चारों तरफ़ उजास छा गया,
फिर भी लगता है,
पहले जैसा कहाँ बसंत,
कोयल चहकने लगी,
रात की रानी महकने लगी,
नई कोपलें फूटने लगी,
प्रकृति में उल्लास छा गया,
फिर भी लगता है,
पहले जैसा कहाँ बसंत,
कोयल की कूक भी,
मन को न भाये,
हरियाली भी न मन बहलाये,
जीवन में संत्रास छा गया,
समस्याओं के होते लगता है ऐसे,
पहले जैसा कहाँ बसंत,
नित – नई समस्याओं से जूझ रहें,
भुखमरी – बेरोज़गारी से टूट रहें,
किसान हल छोड़ सड़कों पे पड़े,
खेत – खलियान सूख रहें,
हल कोई नज़र नहीं आ रहा,
लगता है ऐसे,
पहले जैसा कहाँ बसंत,
धरा दुल्हन सी सजती थी,
पीला जोड़ा पहन निखरती थी,
रंग – बासंती फैलता चहूँ ओर,
मन – मयूर नाचता पंख खोल,
अब उल्लास है ना रास है,
लगता है ऐसे,
पहले जैसा कहाँ बसंत,
महामारी ने ऐसा घेरा,
चारों तरफ लगे अँधेरा,
कोरोना ऐसा फैला जग में,
बदहवास मन घबरा गया,
बदहवासी का ये हाल है,
संत्रास ही संत्रास है,
“शकुन” लगता है जैसे,
पहले जैसा कहाँ बसंत।।