पहले कवि की पहली कविता /
विद्रोही था पहला कवि वह,
करुणा – स्वर से उपजा गान ।
प्रतिकारात्मक कटु – शब्दों में,
बह निकली कविता अनजान ।
इस कविता में नयन – बिंदु ने,
लिया दया का रूप महान ।
ऋषि-मुख से भी गूँज उठी थी,
अप – शब्दों की कोमल तान ।
कोमलता थी प्रतिशोधात्मक,
जिसका लक्ष्य बना अन्याय ।
क्योंकि मरा था क्रोंच पक्षी वह,
पत्नी को करके असहाय ।
मैथुन का आनन्द अधूरा,
और गँवाये पति ने प्राण ।
क्रोंच-प्रिया सहमी-सहमी थी,
कहीं न .मिलता उसको त्राण ।
पति उर को भेदा निषाद ने,
तान प्रत्यंचा छोड़ा बाण ।
गिरा धरा पर श्वेत – बिहग वह,
तड़प – तड़प कर छोड़े प्राण ।
तमसा की लहरें सहमी थीं,
तट – तरुवर भी थे निरुपाय ।
वसुधा भी भयभीत हुई थी,
आखिर ! हुआ बड़ा अन्याय ।
सविता का अवसान काल था,
रवि भी एक निमिष ठहरे थे ।
पुष्प , पर्ण , प्रस्तर सूखे थे,
क्योंकि घाव सचमुच गहरे थे ।
लिए कमण्डल आए ऋषिवर,
संध्या आराधन करने को ।
तमसा-तट पर रखा कमण्डल,
सरि का निर्मल जल भरने को ।
डुबकी से पहले ही देखा,
अश्रु-बिंदु से आर्द्र कमण्डल ।
क्रोंच-प्रिया के दुखित चक्षु से,
बिंदु-बिंदु भरता जिसमें जल ।
यही आर्द्रता ऋषि के उर में,
एक नया आकार ले गई ।
अश्रु दया में परिवर्तित थे,
यह घटना साकार ले गई ।
कंपित होंठ दग्ध उर से कुछ,
फूट पड़े थे शब्द श्राप के ।
हुआ प्रस्फुटन काव्य छंद का,
गीत बने थे शब्द श्राप के ।
अकस्मात ही बिन चिंतन के,
अद्भुत कह उट्ठे थे ऋषिवर ।
अबुध बिहग की अपने उर में,
पीड़ा सह बैठे थे ऋषिवर ।
शब्द, शब्द में जोर बहुत था,
रक्त नयन थे, दग्ध गात था ।
अब मन था पूरा विद्रोही,
और सत्य का इसे साथ था ।
कह उट्ठे थे बाल्मीकि अब,
तुझे शरण न मिले शिकारी ।
नगर-नगर में , देश-देश में,
भ्रमण करेगा बना भिखारी ।
तेरा छुआ न कोई लेगा,
नहीं मिलेगा कोई आश्रय ।
गृह-गृह में अपमानित होगा,
कहा जो मैंने होगा निश्चय ।
क्रोधानल में दग्ध हृदय ले,
अपनी कुटिया आए मुनिवर ।
चिंतन पर अब चिंता भारी,
धैर्य नहीं अब पाए मुनिवर ।
पितृब्रह्म को याद किया फिर,
पूँछा हुआ ये क्या,क्यों,कैसे ?
कहा पितृ ने पुत्र परम प्रिय,
अकस्मात ही ऐंसे – वैसे ।
जो होना है वह होएगा,
ऐंसा पूर्व नियोजित क्रम है ।
ज्ञानी – विज्ञानी होकर भी,
तेरे मन ये कैसा भ्रम है ?
शब्द श्राप में जो हैं निकले,
मम समक्ष फिर से दुहरा तू ।
आठ वर्ण के चार चरण हैं,
मुक्त भाव से फिर से गा तू ।
गुंजित लय है, तालबद्ध हैं,
प्रथम गीत जग में छाएगा ।
खग अश्रु से स्रावित ये पद,
अश्रुत- छंद कहा जाएगा ।
इसी छंद की चढ़ सीढ़ी तू,
रामकथा को जब गाएगा ।
बाल्मीकि रामायण रचकर,
आदिकवि तू कहलाएगा ।
मेरे प्रिय ! विद्रोही मानस ,
गीत जन्म करुणा से होगा ।
अश्रु दया में परिणित हों,तो
मन कविता से पूरित होगा ।
प्रसव वेदना होगी सच्ची,
परकाया होगा प्रवेश भी ।
शब्द न्याय के कारक होंगे,
परपीड़ा होगा निवेश भी ।
विकसेगी प्रतिकारी क्षमता ,
अतियों का भण्डा फोड़ेगी ।
जो आहत हैं , टूटे मन हैं,
बुला-बुला उनको जोड़ेगी ।
कविता ही उत्तम समाधि है,
अपने में ही खो जाने की ।
तन के रहते, मन के रहते,
ख़ुद से ऊपर हो जाने की ।
काव्यकला उत्तम सिंचन है,
शुष्कभाव के खिलजाने का ।
काव्यकला एकेव पंथ है,
निज प्यारे में मिलजाने का ।
इसीलिए कवि है विद्रोही,
योगी भी है और वियोगी ।
करुणा भी है, डाँट-डपट है,
शब्दों का अद्भुत संयोगी ।
——- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।