पहला प्रेम-पत्र
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सादर समीक्षार्थ
प्राणेश्वरी
मिलन की आकांक्षा
प्रिये ! जबसे तुम्हारे नाम यह जीवन लग्नपत्रिका में कैद हुआ है, सच कहूं तो मन रूपी यह पंछी तुमसे मिलने, तुम्हारी एक झलक पाने को आतुर पल – प्रतिपल गुटूरगूं करता है।
काश ! पंछियों जैसे पर होते तो मैं उड़ान भर इसी पल तुम्हारे पास आता और प्रेम भरी दो बातें कर अपने इस बंजर हो चले हृदय रूपी भूमि को तुम्हारे स्नेहिल, प्रेमिल शब्द रूपी जल से सींच कर तृप्त हो जाता।
जब से तुम्हें तस्वीरों में देखा है मन मिलने को बेचैन, अत्यधिक बेचैन है। जहाँ संपूर्ण दिवस भावी मिलन की सुखद स्मृतियों में खोया रहता हूँ, वहीं सारी रात बस तुम्हारे ही स्वप्न के समंदर में गोते लगाते जाने कब बीत जाती है।
प्रिये ! कभी कभी मन होता है, समाज द्वारा स्थापित समस्त बंधनों को तोड़ बस भागता हुआ तुम्हारे पास चला आऊं एवं तुम्हें आलिङ्गनबद्ध कर बस तुम्हारे रूप लावण्य को निहारता रहूं, अपलक, एकटक।
मेरे उर की दशा वैसी ही है जैसी दशा चांद की प्रतीक्षा में चकोर का, एवं स्वाति बूँद को तरसते चातक की होती है।
शादी को महज बीस दिन ही बचे है पर ये सौ वर्षों जैसे प्रतीत हो रहे।
लिखना तो बहुत कुछ चाहता था परन्तु हृदय की इस व्याकुलता को शब्द देने में खुद को असमर्थ पा रहा हूँ।
तुमारा
✍️पं.संजीव शुक्ल ‘सचिन’