” पहला थप्पड़ “
जाने अंजाने मैंने एक भूल की ,
पहले थप्पड़ में खुद का खुन की ।
जब होश संभाला तो सरसों का फूल थी ,
पहले थप्पड़ के बाद सिर्फ सड़कों की धूल थी ।
कभी सपनों का थप्पड़ , कभी समाज का थप्पड़ ,
कभी रिश्तों का थप्पड़ , कभी अपनों का थप्पड़ ,
थप्पड़ ही थप्पड़ , थप्पड़ नहीं जैसे जिंदगी ही बन गई थी ।
इस थप्पड़ ने भी क्या रंग दिखाई थी ,
हर मोड़ पर विरानी सी छाई थी ।
जो भी था ये थप्पड़ उसी की आदत बन गई थी ,
कभी थप्पड़ में नमी तो कभी गरमाईस थी ।
हर थप्पड़ ने ज्योति को जलाई या बुझाई थी ,
हर थप्पड़ ने कहीं ना कहीं मेरे वास्तविक पहचान छुपाई थी ,
हां ! उस पहले थप्पड़ का आज मैं अंतिम संस्कार कर आई थी ।
( 26 फरवरी 2020 : इस कविता में थप्पड़ का अर्थ है ” डर ” )
?धन्यवाद ?
✍️ ज्योति ✍️
नई दिल्ली