पहने कपड़े सुनहरे चमकती हुई
पहने कपड़े सुनहरे चमकती हुई
धूप आई मिरे घर झिझकती हुई
फूल सा इक लिफ़ाफ़ा मेरे नाम का
एक चिट्ठी थी उस में महकती हुई
पुल के मेहराब भी डूबे थे पानी में
बह रही थी नदी भी लचकती हुई
मैं ने महसूस की है मेरे हाथ से
रात रेशम की तरह सरकती हुई
आज फिर रूठ के लौट जाएगी घर
एक लड़की मिरी राह तकती हुई
देर तक शाम पर्वत पे बैठी रही
घुटनों में मुँह छुपाए सुबुकती हुई
शाख़ से तोड़ लेगा कोई खिलते ही
हर कली डर रही है चटकती हुई
याद चुनती रही बीते पल रात भर
चाँद के जंगलों में भटकती हुई
संदीप ठाकुर