*पश्चाताप*
सृजक – डा. अरुण कुमार शास्त्री
विषय – ऋण
शीर्षक – पश्चाताप
विधा – छंद मुक्त तुकांत कविता
ऋण कर्ता रोता सदा , मुक्त कभी न होय ।।
मुक्त अगर हो जाए तो , ग्लानि से हिय ढोय ।।
ज्ञान, मान और शान का , ऋण ही शोषक होय ।।
शीश उठा चल न सके , जग में दंडित होय ।।
ऋण का कीड़ा मानिए , देह दिमाग को खाए ।।
घुन कनक को चाटता , ऐसा घुसता जाए रे भैय्या ।।
ऐसा घुसता जाए, मानुष राखे धीर जो ।
ऋण से बच वो पाए , अपनी चादर देख के ।
तेते पॉव फैलाए रे भैय्या , तेते पॉव फैलाए
संतोषी संसार में , रहता सुख से जान ।।
देख पराई चूपड़ी , देता तनिक न ध्यान रे भैय्या ।।
देता तनिक न ध्यान,
उंच नीच चलती रहती है आज सदा न रहता आज ।
जो सोच बदलता अपनी , वही तो कहलाता उस्ताद ।
हमने अपने प्रयास से , भारत का निर्माण किया ।
हाथ से हाथ मिला तो भाइयों सुन्दर सफल समाज हुआ ।
कर्म के काजे सब सधे सिद्ध कार्य सब होएँगे ।
राहू केतु जब मिल बैठाएंगे भाग्य के बंधन खुल जाएँगे ।
सोमवार दिन भोले शंकर मंगलवार दिन संकटमोचन ।
बुध काम शुद्ध के लिए वीर को गुरु जी का आशीष पाएँगे ।
शुक्र केरे तो सुख संसाधन , शनि कर्म महान ।
रवि वार को पिकनिक जाएँ , सोम को फिर कर्तार ।
ऋण कर्ता रोता सदा , मुक्त कभी न होय ।।
मुक्त अगर हो जाए तो , ग्लानि से हिय ढोय ।।
ज्ञान, मान और शान का , ऋण ही शोषक होय ।।
शीश उठा चल न सके , जग में दंडित होय ।।